उत्तम तप धर्म

श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में तप धर्म के विषय में कहा

णर—भव पावेप्पिणु तच्च मुणेप्पिणु खंचिवि पंचिंदिय समणु।
णिव्वेउ पंमडि वि संगइ छंडि वि तउ किज्जइ जाएवि वणु।।
तं तउ जिंह परगहु छंडिज्जइ, तं तउ जिंह मयणु जि खंडिज्जइ।
तं तउ जिंह णग्गत्तणु दीसइ, तं तउ जिंह गिरिवंदरि णिबसइ।।
तं तउ जिंह उवसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहिं रायाइं जिणिज्जइ।
तं तउ जिंह भिक्खइ भुञ्जिज्जइ, सवाय—गेह कालि णिवसिज्जइ।।
तं तउ जत्थ समिदि परिपालणु, तं तउ गुत्ति—त्तयंह णिहालणु।
तं तउ जिंह अप्पापरु बुज्झिउ, तं तउ जिंह भव—माणु जि उज्झिउ।।
तं तउ जिंह ससरूव मुणिज्जइ, तं तउ जिंह कम्महं गणु खिज्जइ।
तं तउ जिंह सुर भत्ति पयासइ, पवयणत्थ भवियणहं पभासइ।।
जेण तवें केवलु उप्पज्जइ, सासय सुक्खु णिच्च संपज्जइ।
घत्ता— बारह—विहु तउ वरु दुग्गइ परिहरु तं पूजिज्जइ थिरगणिणा।
मच्छरु मउ छंडिवि करणइं दंडिवि तं पि धइज्जइ गउरविणा।।

अर्थ — मनुष्य भव को प्राप्त कर, तत्वों का मनन करके, मन के साथ—साथ पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, निर्वेद को प्राप्त होकर और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके वन में जाकर भी तप करना चाहिए। तप वह है जहाँ परिग्रह का त्याग किया जाता है, तप वह है जहाँ काम को भी नष्ट कर दिया जाता है, तप वह है जहाँ नग्न मुद्रा दिखाई देती है और तप वह है जहाँ पर्वतों की वंदराओं में निवास किया जाता है। तप वह है जहाँ उपसर्ग को सहन किया जाता है, तप वह है जहाँ रागादि भावों को जीता जाता है, तप वह है जहाँ भिक्षावृत्ति से भोजन किया जाता है और श्रावक के घर योग्य काल में जाया जाता है। तप वह है जहाँ समिति का परिपालन होता है, तप वह है जहाँ तीन गुप्तियों की ओर ध्यान दिया जाता है, तप वह है जहाँ अपने और पर के स्वरूप का विचार किया जाता है और तप वह है जहाँ भव—पर्याय के अहंकार को छोड़ा जाता है। तप वह है जहाँ अपने स्वरूप का िंचतवन किया जाता है, तप वह है जहाँ कर्मों का नाश किया जाता है, तप वह है जहाँ देवगण अपनी भक्ति प्रकाशित करते हैं और जहाँ भव्य जीवों के लिए प्रवचन के अर्थ का कथन किया जाता है। तप वह है जिसके होने पर निश्चित ही केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और जिससे नित्य शाश्वत सौख्य की प्राप्ति की जाती है। बारह प्रकार का तप उत्तम है और दुर्गति का परिहार करने वाला है। अत: स्थिर मन होकर उसकी पूजा करनी चाहिये और मद तथा मात्सर्य भावों को छोड़कर पाँचों इन्द्रियों का दमन कर गौरव के साथ उस उत्तम तप को धारण करना चाहिये।

जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमतपो धर्माङ्गाय नम:।