उत्तम संयम धर्म

श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में संयम धर्म के विषय में कहा है

संजमु जणि दुल्लहु तं पाविल्लहु जो छंडइ पुणु मूढमइ।
सो भमइ भवावलि जर—मरणावलि किं पावेसइ पुणु सुगइ।।
संजमु पंचदिय—दंडणेण, संजमु जि कसाय—विहंडणेण।
संजमु दुद्धर—तव धारणेण, संजमु रस—चाय—वियारणेण।।
संजमु उपवास—वजंभणेण, संजमु मण—पसरहं थंभणेण।
संजमु गुरुकाय—किलेसणेण, संजमु परिगह—गह चायणेण।।
संजमु तस थावर—रक्खणेण, संजमु सत्तत्थ—परिक्खणेण।
संजमु तणु—जोय णियंतणेण, संजमु बहु—गमणु चयंतएण।
संजमु अणुवंप कुणंतएण, संजमु परमत्थ—विचारणेण।
संजमु पोसइ दंसणहं पंथु, संजमु णिच्छय णिरु मोक्ख—पंथु।।
संजमु विणु णर—भव सयलु सुण्णु, संजमु विणु दुग्गइ जि उववण्णु।
संजमु विणु घडिय म इत्थ जाउ, संयमु विणु विहलिय अत्थि आउ।।
घत्ता— इह—भवि पर—भवि संजमु सरणु हुज्जउ जिणणाहें भणिउ।
दुग्गइ—सर—सोसण—खर—किरणोवम जेण भवालि विसमु हणिउ।।

अर्थ — इस संसार में संयम धर्म दुर्लभ है, जो प्राप्त कर उसे छोड़ देता है वह मूढ़मति है, वह जरा और मरण के समूह से व्याप्त इस संसाररूपी वन में परिभ्रमण करता रहता है, पुन: वह सुगति को कैसे प्राप्त कर सकता है? पाँचों इन्द्रियों के दमन करने से संयम होता है, कषायों का निग्रह करने से संयम होता है, दुर्धर तप के धारण करने से संयम होता है और रस परित्याग के विचार भावों से संयम होता है। उपवासों के बढ़ाने से संयम होता है, मन के प्रसार को रोकने से संयम होता है, बहुत प्रकार के कायक्लेश तप से संयम होता है और परिग्रहरूपी पिशाच के छोड़ने से संयम होता है। त्रस—स्थावर जीवों की रक्षा से संयम होता है, सात तत्वों के परीक्षण से संयम होता है, काययोग के नियंत्रण से संयम होता है और बहुत गमन के त्याग से संयम होता है। अनुवंâपा करने से संयम होता है, परमार्थ तत्त्व के विचार करने से संयम होता है, यह संयम सम्यग्दर्शन के मार्ग को पोषित करता है और वह संयम ही निश्चय से मोक्ष का मार्ग है। संयम के बिना यह सारा मनुष्य भव शून्य के समान है, संयम के बिना यह जीव दुर्गति में जन्म ले लेता है। इसलिये संयम के बिना एक घड़ी भी व्यर्थ मत जीओ, क्योंकि संयम के बिना सम्पूर्ण आयु विफल है। इस भव में और परभव में संयम ही शरण हो सकता है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है। यह दुर्गतिरूपी सरोवर का शोषण करने के लिये तीक्ष्ण किरणों के समान है। इस उत्तम संयम से ही विषम भवावली का नाश होता है ।

कथा

पद्मिनी नामा नगर में किसी समय ‘‘मतिवर्धन’’ नाम के दिगम्बराचार्य चर्तुिवध संघ सहित पधारे। उनके संघ में महातपस्वी ज्ञानी और ध्यानी सभी तरह के मुनि धर्मध्यान में परायण थे। ‘‘अनुद्धरा’’ नाम की आर्यिका थीं जो कि सर्व आर्यिकाओं की रक्षा करने में तत्पर गणिनी थीं। वह विशाल संघ वहाँ आकर नगर के बाहर के उद्यान में आचार्य देव की आज्ञा से ठहर गया। उस उद्यान का माली अपने साथियों को साथ लेकर भय से काँपता हुआ पद्मिनी नगरी के महाराजा विजयपर्वत के राजदरबार में पहुँचा और नमस्कार करके निवेदन करने लगा— ‘‘महाराज ! आगे तो बहुत अधिक ऊँची ढालू चट्टान है और पीछे व्याघ्र हैं, बताइये हम किसी की शरण में जायें ? महाराज ने आश्चर्य युक्त हो पूछा— ‘‘बोलो, बोलो, क्या कह रहे हो ? क्या संकट उपस्थित हुआ है?’ उन िंककरों में प्रमुख वनपाल ने कहा— ‘‘महाराज ! उद्यान की रमणीय भूमि में मुनियों का एक विशाल संघ आकर ठहर गया है। यदि इस संघ को हम मना करते हैं तो शाप को प्राप्त होते हैं और यदि नहीं मना करते हैं तो आप क्रोध को प्राप्त होंगे, इस प्रकार हम लोगों पर बड़ा संकट आ पड़ा है। हे राजन् ! आपके प्रसाद से हम लोगों ने वह उद्यान कल्पवृक्षों के उद्यान के समान बना रखा है। उसमें साधारण पामर मनुष्य प्रवेश भी नहीं कर सकते हैं, किन्तु जो तप के तेज से अत्यन्त दुर्गम हैं ऐसे निर्ग्रंथ मुनियों को देव भी रोकने में समर्थ नहीं हैं फिर भला हम जैसे लोगों के द्वारा उन्हें कैसे रोका जा सकता है ? यह सुनकर राजा आश्चर्य से युक्त होकर उन लोगों को सान्त्वना देते हुये बोले— ‘‘डरो मत, वे मुनिगण ठहर चुके हैं तो अब कोई बात नहीं है, हम स्वयं ही वहाँ आ रहे हैं।’’

पुन: राजा विशाल वैभव के साथ उद्यान भूमि में पहुँचकर उस चर्तुिवध संघ को देखता है। वहाँ पर सभी साधु वन की धूलि से धूसरित हो रहे थे। उनमें से कोई मुनिराज जिनेन्द्र देव की स्तुति, वंदना में तत्पर थे, कोई भुजाओं को लटकाकर जिनमुद्रा से ध्यान कर रहे थे, कोई स्वाध्याय में लीन थे, कोई अध्ययन कर रहे थे, तो कोई महाविद्वान मुनि अन्य साधुओं को सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन करा रहे थे। किन्हीं मुनियों के शरीर बेला, तेला आदि उपवासों से अतिशय क्षीण हो रहे थे फिर भी उनके चेहरे की दीप्ति व उनका अपना उत्साह उनके आत्मबल को, उनके मनोबल को स्पष्ट घोषित कर रहा था। एक तरफ आर्यिकाओं के समुदाय में भी वन की धूलि से लिप्त एक साड़ी मात्र परिग्रह को धारण करने वाली उन आर्यिकाओं में कुछ आर्यिकायें मधुर स्वर से पाठ गुनगुना रही थीं, कुछ स्वाध्याय क्रिया में तत्पर थीं, कुछ पठन—पाठन में व्यस्त थीं, कहीं पर सिद्धान्त के गूढ रहस्यों का उद्घाटन हो रहा था तो कहीं पर महापुरुषों के चरित्र का बखान चल रहा था। राजा क्रम—क्रम से सभी साधु—साध्वियों की वंदना करते हुये उनके गुणों से प्रसन्न हो रहे थे। अंत में वे आचार्य देव की वंदना करके उनके निकट बैठकर विनयपूर्वक बोले— ‘‘भगवन् ! आपके शुभ लक्षणों से युक्त जैसी आपकी दीप्ति है वैसे भोग आपके चरण कमल में स्थित क्यों नहीं हैं ?’’ आचार्य देव ने उत्तर दिया— हे नरश्रेष्ठ! ये संसार के विषयभोग सुखदायी हैं यह कल्पना कहाँ तक सत्य है ? पहले आप इसे समझो तब आपको पता चलेगा कि ये भोग महान् नहीं हैं प्रत्युत इनको तृणवत् समझकर इनका त्याग करने वाले संयमी साधु ही महान् हैं। देखो ! यह जीवन, यह यौवन, यह राज्यसंपदा, यह विशाल वैभव कितने दिन तक टिकने वाला है ? क्या इनमें से कोई भी वस्तु स्थायी शांति दे सकती है ?

राजा गुरुदेव के इन प्रश्नों को सुनकर कुछ क्षण के लिए परमविस्मय को प्राप्त हो गया और और विचार करने लगा कि वास्तव में इनमें से कुछ भी टिकने वाला नहीं है ? पुन:किस वस्तु से सुख की आशा की जाये ? पुनरपि राजा प्रश्न करता है— ‘‘भगवन् ! पुन: इस संसार में स्थायी वस्तु क्या है ?’’ ‘‘राजन् ! स्थायी वस्तु अपनी आत्मा है और उसका सुख ही सच्चा सुख है। यह शरीर नश्वर है, जड़ है और अनंत दु:खों की खान है।’’ इत्यादि रूप से मुनिपति के मुखकमल से निर्गत धर्मोपदेश को सुनकर राजा संसार के भोगों से विरक्त हो गया और उसी समय वह अपने विशाल वैभव को जीर्ण—तृणवत् त्यागकर तथा संयम धारण कर दिगम्बर मुनि हो गया। उस समय राजा को दीक्षित हुआ देखकर अनेकों भव्य जीवों ने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। जो दीक्षा लेने में अपने को सर्वथा असमर्थ समझ रहे थे ऐसे अनेकों ने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। सच है यदि संयम का महत्त्व अधिक न होता तो बड़े—बड़े राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और इन्द्र भी मुनियों को नमस्कार क्यों करते !

जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नम:।