जैनशास्त्रों (Jain Shastra) में तन्त्र-मन्त्रों के उल्लेख
तस्स भुवनेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स[१]।।
लोक में जितने प्रकार के पूजा—पाठ अथवा विधि—विधान पाये जाते हैं, वे सब तन्त्र हैं। तन्त्र के लिये यन्त्र और मन्त्र की आवश्यकता होती है। उनके अभाव में तन्त्र—सिद्धि में पूर्णता नहीं आती है। इसमें स्थान की शुद्धि, मन की शुद्धि और प्रयोग में लाई जाने वाली सामग्री की शुद्धि नितान्त आवश्यक है। लोक में आकर्षण, सम्मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन, विद्वेषण तथा मारण रूप क्रियायें तन्त्र के द्वारा साध्य हैं ।प्रारम्भ में इनका प्रयोग अच्छे कार्यों के लिये अथवा शुभानुष्ठानों के लिये किया जाता रहा है। किन्तु सम्प्रति इस विद्या का प्रयोग क्षुद्र स्वार्थों अथवा ईर्ष्या—द्वेष की पूर्ति के लिये होने लगा है, जिससे समाज ने उसे सर्वथा त्याज्य तथा निन्दनीय घोषित कर दिया है।
जैनशास्त्रों(Jain Shastra) में अच्छे साध्य के लिये अच्छे साधनों पर बल दिया गया है। अत: अशुद्ध साधनों के माध्यम से सिद्ध होने वाले आकर्षण—सम्मोहन जैसे तान्त्रिक प्रयोगों का जैनशास्त्र समर्थन नहीं करते हैं, फिर उच्चाटन और मारण जैसे तान्त्रिक प्रयोगों के समर्थन का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। हाँ ! कुछ लौकिक सुख—साधनों की पूर्ति हेतु अथवा पारलौकिक सुख की इच्छा से आत्मशक्ति को प्रस्फुटित करना ही जैनतन्त्र—मंत्रों का साध्य है। यहाँ हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है। क्योंकि अहिंसा जैनधर्म—दर्शन का मूल है। अत: हिंसा परक साधनों का जैनदर्शन में निषेध किया गया है।
सभी प्रकार के तन्त्र—मन्त्र आत्मशुद्धि के लिये / आत्मशक्ति के जागरण के लिये बाह्य साधन के रूप में अपनाये जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार मूल आत्मा अनन्त—शक्ति का पुञ्ज है, किन्तु कर्मावरणों के कारण आत्मा की शक्ति आच्छादित हो जाती है । अत: उस आत्म—शक्ति के जागृत होते ही सभी प्रकार की उपलब्धि स्वत: हो जाती है और यह उपलब्धि बाह्य—सम्पत्ति के रूप में न होकर आत्मा के अनन्त—सुख की प्राप्ति रूप होती है, जो शाश्वत होती है। उससे अधिक सुखानुभूति अन्यत्र असम्भव है। यद्यपि आज के युग में जिस तन्त्र की चर्चा की जाती है / व्यवहार में तन्त्र प्रयोग का जो रूप लोगों के मन में समाहित हो गया है , वैसा तन्त्र का प्रयोग जैनशास्त्र—सम्मत नहीं है। पञ्च मकार जैसे प्रयोगों की तो जैनधर्म में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। क्योंकि जैनशास्त्रों में दो प्रकार के आचारों का उल्लेख किया गया है— एक मूलगुण —रूप और दूसरा उत्तरगुण—रूप। मूलगुणों में किसी भी प्रकार की शिथिलता को स्वीकार नहीं किया गया है। हाँ उत्तरगुणों के सम्बन्ध में यह अवश्य है कि साधक को उनके पालन के लिये प्रयास करना चाहिये। जिससे मूलगुणों में किसी प्रकार का दोष न लगे, साथ ही उन गुणों के माध्यम से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहायता मिल सके। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच मूल सिद्धान्त/ मूलगुण है और इन पाँचों के मूल में अहिंसा धुरी के रूप में प्रतिष्ठित है। अत: इस धुरीभूत अहिंसा को केन्द्रबिन्दु मानकर ही जैन—साधकों द्वारा तन्त्र प्रयोग किया जा सकता है।
जैनधर्म—दर्शन में तन्त्र की आवश्यकता
जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि जैनधर्म अध्यात्म—प्रधान धर्म है । अत: लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिये कोई भी अनुष्ठान अथवा क्रिया—काण्ड मूल—सिद्धान्तों के विपरीत है। किन्तु हम लोक में रहते हैं तो लौकिक कार्य भी करने पड़ते हैं। अत: लोक—व्यवहार की दृष्टि से पूर्ववर्ती आचार्यों ने पूजा—पाठों अथवा विधि—विधानों का पर्याप्त उल्लेख किया है। जिसमें जैनधर्म के आदर्शों /प्रतीकों को मूल में रखकर पूजा —पाठों अथवा शान्ति—विधानों आदि का विवेचन किया गया है । यशस्तिलकचम्पूकार आचार्य सोमदेवसूरि ने सामान्य जनों के साथ तालमेल बैठाने की दृष्टि से स्पष्ट उल्लेख किया है कि—
यत्र सम्यक्तवहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।।
इस पद्य से स्पष्ट है कि लौकिक—जनों के मध्य रहकर उनसे बैर—विरोध न करते हुए उनके साथ सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिये। यही जैनधर्म—दर्शन में तन्त्र प्रयोग का हेतु प्रतीत होता है । यद्यपि आचार्य सोमदेवसूरि का यह कथन परवर्ती है, किन्तु पूर्व प्रचलित तन्त्र के प्रयोगों को ध्यान में रखकर उन्होंने इन लौकिक कार्यों को करते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से सावधान किया है कि लौकिक—जनों के साथ मिलकर वे ही कार्य किये जाये जो हमें अपने लक्ष्य से भ्रष्ट न करते हों। अर्थात् जैनशास्त्र (Jain Shastra)—सम्मत अहिंसा आदि व्रतों में किसी भी प्रकार का दोष न लगे और हमारे लक्ष्य में कोई बाधा उपस्थित न हो। उक्त पद्य का यह अर्थ कदापि नहीं है कि लोक—भावना में बहकर हम अपने मूल अहिंसा व्रत से भ्रष्ट हो जायें।
तन्त्रों के प्रयोग :
जैन पौराणिक—साहित्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि पुराणों में जैन—तन्त्र के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनमें तन्त्र के ही एक अंग मंत्र का प्रयोग किया गया है। काशी के राजकुमार और जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पाश्र्वनाथ ने अपने बाल्यकाल में अद्र्धदग्ध नाग—्नाागिनी को णमोकार मन्त्र सुनाया था, जिसके फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त नाग—नागिनी ने देवपद की प्राप्ति की थी, जो धरणेन्द्र एवं पद्मावती के नाम से जाने जाते हैं। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की थी, जिससे अष्टम तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु की मूर्ति प्रकट हुई थी। आचार्य समन्तभद्र एक अच्छे तान्त्रिक और मान्त्रिक भी थे, जिसकी पुष्टि उनके इस कथन से होती है कि मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् ।आचार्य समन्तभद्र बहुत बड़े परीक्षाप्रधानी थे। उन्होंने आप्तमीमांसा के प्रारम्भ में भगवान् जिनेन्द्रदेव की परीक्षा करते हुये लिखा है कि
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् [२]।।
अर्थात् भगवान् के जन्माभिषेक के समय देवताओं का आगमन , आकाश में विचरण करना अथवा अन्य अनेक भौतिक छत्र—चमर आदि विभूतियों से युक्त होना महानता का कारण नहीं है। क्योंकि उपर्युल्लिखित बातें तो मायाचारियों/ऐन्द्रजालियों में भी देखने को मिलती है। अत: इन सांसारिक बाह्य—विभूतियों को आचार्य समन्तभद्र ने महानता की संज्ञा नहीं दी है। साथ ही उनकी उपेक्षा भी की है। इसी प्रकार आचार्य शुभचन्द्र ने अपने पाण्डव—पुराण में आचार्य कुन्दकुन्द की स्तुति में गिरनार पर्वत पर दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के शास्त्रार्थ का संकेत करते हुये उसमें बाह्मी देवी की पाषाण—मूर्ति को बुलाने का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं।
सोऽवतात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।।
अर्थात् वे कुन्दकुन्दगणी रक्षा करें, जिन्होंने कलिकाल में उर्जयन्तगिरि के मस्तक पर अर्थात् गिरनार पर्वत के ऊपर पाषाण—िनर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया।[३] इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि तन्त्र—मन्त्र के प्रयोगों की परम्परा उस काल में प्रारम्भ हो गई थी। श्रुतावतार कथा में एक प्रसंग आया है कि आचार्य धरसेन ने विद्याध्ययन हेतु आये हुये भूतबली और पुष्पदन्त नामक दो मुनिराजों/साधुओं की परीक्षा हेतु विद्या—देवियों को सिद्ध करने हेतु एक को अधिकाक्षर वाला मन्त्र एवं दूसरे को हीनाक्षर वाला मन्त्र दिया था। दोनों साधुओं द्वारा विद्या—देवियों की सिद्धि करने पर ज्ञात हुआ कि दोनों विद्या—देवियाँ विकृत अंगों वाली हैं। एक देवी के दाँत बाहर निकले थे और दूसरी एकाक्षी थी। किन्तु देवी—देवता विकृत अंग वाले नहीं होते हैं, ऐसा विचार कर दोनों साधुओं ने पहले मंत्रों को शुद्ध किया तत्पश्चात् उन विद्या—देवियों की आराधना की तो विद्या—देवियाँ अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई। उपर्युक्त के अतिरिक्त आचार्य मानतुङ्ग द्वारा किये गये मन्त्र—प्रयोग से अड़तालीस तालों का खुल जाना, आचार्य वादिराजसूरि द्वारा मन्त्र के प्रयोग से कोढ़ का मिट जाना, सती मैना सुन्दरी द्वारा सिद्धचक्र विधान कराकर गन्धोदक द्वारा अपने पति सहित सात सौ कोढ़ियों का कुष्ठ रोग नष्ट करना, अञ्जन चोर द्वारा आकाशगामिनी —िवद्या सिद्ध करके अनेक तीर्थों की वन्दना करना, मुनि विष्णुकुमार द्वारा सात सौ मुनिराजों की रक्षा करना आदि ऐसे अनेक पौराणिक उदाहरण हैं जो लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिये साधन के रूप में अपनाये गये हैं ।
जैनशास्त्रों (Jain Shastra) में सात परमस्थानों का उल्लेख किया गया है। नाम सज्जातित्व, सदगृहित्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, परमार्हत्य और परम निर्वाण । इसलिये प्रत्येक जाति के मन्त्र के अन्त में ‘सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु’ ऐसा काम्य मन्त्र आता है। जिसका तात्पर्य होता है कि उनकी सेवा—पूजा करने के फलस्वरूप षट्परमस्थानों की प्राप्ति हो। और वह भी इसलिये कि अभी तत्काल मोक्ष प्राप्ति असम्भव है, अत: उसकी प्राप्ति से पूर्व सुगति अथवा उत्तम स्थान को प्राप्त करने की भावना व्यक्त की गई है। यत: जैन दर्शन मुक्ति प्राप्ति को ही जीव का अन्तिम लक्ष्य मानता है, अत: ऐसे परम स्थानों की प्राप्ति , जो संसार को बढ़ाने वाले हैं, उनकी भी कामना क्यों की गई है ? इस सन्दर्भ में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर इष्टोपदेश के कत्र्ता आचार्य पूज्यपाद के निम्न पद्य को उद्घृत करना चाहूँगा।
छायातपस्थयोर्भेद: प्रतिपालयतो महान् ।।
इस पद्य का आशय है कि यद्यपि जैनधर्म—दर्शन का अभीष्ट जीव की मुक्ति / अनन्त सुख की प्राप्ति है, किन्तु अभी तत्काल मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है, अत: मोक्ष—प्राप्ति/निर्वाण—प्राप्ति से पूर्व जब तक संसार में हैं तब तक जितना संभव हो उतना सुख—शांति पूर्वक संसार में वैसे ही रहें जैसे किसी मित्र की प्रतीक्षा धूप में खड़े होकर न करें, अपितु छाया में बैठकर प्रतीक्षा करें। यहाँ लौकिक दु:ख धूप की तरह और लौकिक सुख छाया की तरह बतलाये गये हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सांसारिक कार्यों के लिये ही मन्त्र—तन्त्र का प्रयोग जैनशास्त्रों (Jain Shastra)में बतलाया गया है।
अब एक प्रश्न यह उठता है कि जब भगवान् जिनेन्द्रदेव न तो किसी की पूजा से प्रसन्न होते हैं और न ही वे किसी भी व्यक्ति द्वारा निन्दा करने से नाराज होते हैं तब फिर इस प्रकार की पूजाओं अथवा प्रार्थनाओं का क्या अर्थ है ? इस सन्दर्भ में मैं यह कहना चाहूँगा कि जैनशास्त्रों में दो प्रकार के देवों का उल्लेख किया गया है। एक वे जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का नाशकर मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया है और फिर वे कभी संसार में वापिस नहीं आयेंगे। क्योंकि संसार के कारण स्वरूप कर्मों का उनके सर्वथा अभाव है। अत: वे परमात्मा अथवा सिद्ध भगवान् के रूप में कहे गये हैं। दूसरे देव वे हैं, जो संसार में रहते हैं, ऋद्धि—सिद्धि प्राप्त हैं, ऐसे लौकिक देव। इसलिये जब हम कोई शुभ अनुष्ठान करते हैं, तब जैसे अपने सगे संबंधियों को उसमें सम्मिलित होने के लिये बुलाते हैं और उनसे योग्यतानुरूप विविध कार्यों को सम्पन्न करने का निवेदन करते हैं वैसे ही चूंकि लौकिक देव हम लोगों जैसे ही संसारी हैं। हाँ ! वे देवगति के जीव अवश्य हैं, जैसे हम लोग मनुष्य गति के हैं। किन्तु हैं हम लोगों जैसे संसारी ही। अत: इन्हें भी हम अपने शुभ अनुष्ठानों में भाग लेने के लिये बुलाते हैं और उनसे उनके अनुरूप सहायता करने का निवेदन करते हैं। किन्तु मूल रूप में हम उन्हीं वीतरागी भगवान् के गुणों का स्मरण करते है।। क्योंकि वे हमारे आदर्श हैं। हम जैसा बनना चाहते हैं वैसे गुणों के धारक महापुरुषों को हम अपना आदर्श बनाते हैं। अत: जैनागम—सम्मत मन्त्रों में भगवान् के गुणों को नमस्कार किया गया है। जैसे — अचलाय नम: अक्षयाय नम:, अव्यावाधाय नम:, अनन्तवीर्याय नम:, अनन्तज्ञानाय नम:, अनन्तसुखाय नम: इत्यादि। इनका प्रमुख लक्ष्य है ‘सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु’ इत्यादि। इन मन्त्रों की विशेषता यह है कि ये सभी मन्त्र आत्मशुद्धि के लिये हैं। संसार में रहते हुये अनावश्यक भय सताता रहता है। जबकि जैनधर्म—दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव अपने द्वारा किये गये कर्मों का ही फल प्राप्त करता है । कर्म—फल व्यवस्था जैनधर्म—दर्शन की रीढ़ है। इसमें भगवान/ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिये भगवान अपनी पूजा—प्रार्थना से न प्रसन्न होते हैं और न ही रुष्ट ऐसी स्थिति में प्रथम दृष्टया पूजा—प्रार्थना का कोई भी फल प्रतीत नहीं होता है। किन्तु पूजा—प्रार्थना के माध्यम से उनके गुणों का पुन: पुन: स्मरण करने से एक अलौकिक प्रकार की शक्ति प्राप्त होती है। उनके गुणों को जीवन में उतारने की भावना बलवती होती है और उन जैसा बनने की भावना मन में जागृत होती है।यही इन पूजा—पाठों और प्रार्थनाओं का अचिन्त्य फल है। यदि इन पूजा—पाठों से और कुछ विशेष प्राप्ति नहीं होती है तो भी पूजा—प्रार्थना—काल तक अपने आराध्य के गुणों का चिन्तन करने से मन में उन गुणों का बीज रूप प्रथम बिन्दु का प्रवेश अवश्य होता है, जो भविष्य में बोधि—प्राप्ति का निमित्त बनता है । अत: व्यवहार की दृष्टि से पूजा—पाठ अथवा प्रार्थना का निषेध जैनधर्म—दर्शन में नहीं किया गया है। इससे एक बात और फलित होती है कि जीव जब खाली होता है तो वह विविध सांसारिक कार्यों में फसकर अपना संसार बढ़ाता है, किन्तु इन पूजा—पाठों से अशुभ से निवृत्ति होती है और हम पर—जीवों का कल्याण भले ही न कर सवेंâ, किन्तु उनके प्रति अकल्याण की भावना से बच जाना/उनका अहित न सोचना, यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। और आज के विषाक्त वातावरण में पर का कल्याण भले ही न करें, किन्तु उनके अकल्याण में प्रवृत्त न हों, यही दूसरे प्राणियों के ऊपर बहुत बड़ा उपकार है । वैसे भी हम अपने—अपने कत्र्तव्य का पालन करें तो दूसरे प्राणियों का कल्याण हुये बिना नहीं रह सकता है।
यहाँ एक प्रश्न पुन: उपस्थित होता है कि जब वीतराग भगवान् संसार में वापिस नहीं आते हैं तब पूजा—पाठ, स्तुति—fवधान के आदि में उन वीतरागी प्रभु का आह्वानन, स्थापना और विसर्जन क्यों किया जाता है ? इस सन्दर्भ में दो बातें कहना चाहूँगा। प्रथम यह कि यह सब देश—काल का प्रभाव है और वैदिक क्रिया—काण्डों से गृहीत है। अन्तर केवल इतना है कि इन सब क्रियाओं का जैनीकरण किया गया है । दूसरी बात यह है कि साधक तन्मय हुये बिना/भगवान् के उन अचिन्त्य गुणों को आत्मसात किये बिना इस अलौकिक सुख—शान्ति अथवा आत्मशक्ति किवा कुण्डलिनी के जागरण की कल्पना भी नहीं कर सकता है। अत: लोकाचार की दृष्टि से इनका निषेध नहीं किया जा सकता है। एक बात और। मन्दिर—मूर्ति का निर्माण और उपासना के लिये तरह—तरह के विधि विधानों का अनुष्ठान स्वयं भक्तजनों /श्रावकों द्वारा अपनी भक्ति तथा शक्ति आदि के अनुसार कल्पित किया गया है, जो समय पाकर रुढ़ हो गया है। स्वामी पात्रकेशरी ने तो स्पष्ट लिखा है कि—
क्रिया: बहुविध सुभृन्मरण—पडित्रा—हेतव:।।
त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिता: किन्तु, तास्।
त्वयि प्रसृतभक्तिभि: स्वयमनुष्ठिता: श्राववैâ:८।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि जैनधर्म विशुद्ध आध्यात्मिक धर्म है, किन्तु लोकाचार को प्रमाण मानकर जैन— साधकों ने विभिन्न प्रकार के पूजा—ाqवधानों अथवा तन्त्र—मन्त्रों का प्रयोग किया है। हाँ ! एक बात अवश्य है कि आज भी जैन—साधक इन पूजा—पाठों, तन्त्रों—मन्त्रों वेâ मूल में वीतराग भगवान् जिनेन्द्रदेव को ही लक्ष्य में रखते हैं। उन्हें यौगिक एवं तान्त्रिक सिद्धियाँ तो वैसे ही प्राप्त होती है जैसे गेहूँ की प्राप्ति के लिये किये गये किसान के प्रयत्न से भूसे की प्राप्ति स्वत: होती है । अथवा पेड़ के नीचे जाने से छाया की प्राप्ति स्वत: होती है, आप पेड से छाया माँगे अथवा नहीं। अन्त में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यदि किसी व्यक्ति को जैन—साधना—पद्धति से तन्त्रों—मन्त्रों का प्रयोग अभीष्ट है तो वह शुभ—कार्यों िंकवा स्व—पर उपकार के लिये ही इनका प्रयोग करे । राग—द्वेष अथवा कषायों की पुष्टि के लिये नहीं। इस जैन तन्त्र—साधना पद्धति से सभी जीव स्व पर कल्याण में निरत हों, यही मङ्गलभावना है।
- यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य, अष्टम आश्वास, पद्य २२
- आप्त—मीमांसा, आचार्य समन्तभद्र, पद्य—
- जैन साहित्य का इतिहास, पं कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य, भा. दि. जैन संघ,मथुरा, भाग— २,पृ.१०९
बहुत बढ़िया…………..
Muje apse kuch puchhana tha
Jai Jinendra,
Ji bataeye kya puchhna hai..?
Can we talk ?
Jain mritunjaya mantra find krna mujhe.. Can u help