श्रीवत्स प्रतीक का उद्भव और विकास
श्रीवत्स भारतीय संस्कृति की प्रतीक परम्परा का अभिन्न अंग है। यह जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों संस्कृतियों में लोकप्रिय रहा है। विशेष रूप से कलात्मक क्षेत्र में उसका उपयोग हुआ है। प्रारम्भ में यह मांगलिक चिह्न के रूप में प्रयुक्त होता रहा और बाद में उसे पुरुष लक्षण के रूप में मान्यता मिली।
अष्टमांगलिक चिह्न अष्ट मांगलिक चिह्नों के सन्दर्भ में दिगम्बर श्वेताम्बर परम्पराओं में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थ तिलोपना में आद मंगल द्रव्य से है श्रृंगार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बोलना और सुप्रतिष्ठ (गाथा १८८०)। परन्तु श्वेताम्बर परम्परा के औपपातिक सूत्र (३श्र्व सूच) में इन नामों में कुछ अन्तर है। ये नाम हैं- स्वस्तिक, मुन्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, दर्पण, मत्स्य-युग्म तथा श्रीवत्स । तीर्थकरों के बिहूनों में दिगम्बर परम्परा में शीतलनाथ को स्वस्तिक का विहून दिया गया है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में उसका स्थान श्रीपल्स ने लिया है। इसके बावजूद उत्तरकाल में श्रीवत्स जिनमूर्तियों के वक्षस्थल में अनिवार्य रूप से उत्कीर्ण होने लगा।
आधार दिनकर में श्रीसको कैवल्यज्ञान का प्रतीक माना गया है। बौद्ध परम्परा में भी मांगलिक चिह्नों को स्वीकारा गया है पर वहाँ संख्या आठ नहीं है। ललित विस्तर (५.७५) में उनका उल्लेख इस प्रकार श्रीस, स्वस्तिक [द्यावर्त पद्म वर्धमान आदि। बृहत्संहिता (६.२) ६३) में श्रीवत्स के साथ वर्धमान, छत्र, चामर, ध्यान, प्रहरण, न्या तथा लोष्ट की गणना अष्ट मांगलिक बच्चों में की गई है। कालान्तर में इस संख्या में वृद्धि हुई और यह संख्या नौ दस ग्यारह तरह क पहुँच गई।
इन दों में श्रीवत्स, स्वस्तिक, पुष्प, दर्पण, परशु, अंकुश, कलश माता पुस्तक, कमण्डलु, मीन-मिथुन, वर्धमान नातं एवं चागर, ध्वज आदि मुख्य है। श्रीवत्स प्रतीक का मूलरूप श्रीवत्स के प्राचीनतम रूप को देखकर ऐसा लगता है कि उसका यह रूप मानव की आकृति का ही छायांकन है गंगा घाटी से प्राप्त द्वितीय तृतीय सहस्राब्दि पूर्व की तार मानवाकृतियों से उसकी तुलना की जा सकता है। जैन परम्परा में ऐसा रूप त्रिलोकाकूति का माना जाता है। संभव है, उसका मूलरूप जैन रूप रहा हो। इस प्रतीक मूर्ति का चित्र देखिए
(१) मोहेनजोदड़ो की मृण्मूर्तियाँ भी लगभग इसी आकार प्रकार की है
(२) श्रीवत्स का यह प्राचीनतम रूप रहा होगा। मातृदेवी की कलाना के साथ भी वहाँ कुछ ऐसी मूर्तियाँ जिनके वक्ष पर बालक जैसी आकृति चिपकी हुई है।
(३) यह अपने वास के प्रति माँ की ममता है।
इसे श्रीलक्ष्मी भी कहा जा सकता है। श्री अर्थात लक्ष्मी के लिए यह मानव वत्स (सन्तान से समान है। सैन्धव सभ्यता में शिल्प में श्रीवत्स का उत्कीर्णन भरहुत, सांची, सारनाथ, मथुरा, उदयगिरि-खण्डगिरि आदि स्थानों के शिल्प में श्रीवत्स का उत्कोणन विविध रूप से हुआ है। यहाँ और अर्थ में उत्पल के साथ श्रीवत्स का अंकन है। कता के साथ उसका अलंकरण हुआ है। धर्म विरल और स्तूप का भी वहीं चित्रांकन किया गया है।
सांची के एक स्तूप के चित्रांकन में उसके निम्न माग में तीन पंक्तियों में प्रतीकों का चित्रण किया गया है। मध्य में चार श्रीचता है और अगल-बगल में चार-चार पद्म का अंकन है। मथुरा में काली टीले से प्राप्त जैन स्तूप के वेदिका स्तम्भों तथा आयागपट्टों पर श्रीवत्स का चित्रांकन हुआ एक वैदिक स्तम्भ के फल में का चित्राकन फण उठाये दो सपों की आकृति जैसा है। (४) यहीं श्रीवत्स का स्वरूप शुंग युगीन साथी शिल्प जैसा ही जान पड़ता है।
श्री का यह अलंकरण आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के कृष्णा पलनी स्थान पर प्राप्त बौद्ध स्तूप पर भी मिलता है जो विताय- प्रथम शताब्दी ई. पूर्व का है। यह श्रीवत्स का अलंकरण मात्र मूर्तियों या स्तूप पर ही नहीं मिलता बल्कि मूर्तियों पर लगी रत्नमालाओं केश मुद्दों पर उपलब्ध होता है। मूर्तियों मथुरा, कौशाम्बी, आदि प्राचीन नगरों में मिली हैं। इसी तरह मुद्राओं पर भी शक और स्वस्तिक के साथ ताका अकन हुआ है। यह अकन वैविष्य लिये हुए है। माहों पर भी यह अंकन मिलता है। मथुरा से प्राप्त भाग पर भी अन्य मांगलिक प्रतीकों के साथ अलंकृत रूप में दृष्टव्य है। एक आयाम के केन्द्र में छब और मालाओं से आवेष्टित तीर्थंकर की प्रतिमा पद्मासनस्थ है। ऊपर मीन-मिथुन, भद्रासन, श्रीवत्स और नन्यावर्त तथा नीचे नन्विपद पुष्पमाला, पवित्रा पुस्तक और मंगल कलश है। दूसरे आयागपद पर केन्द्र मैं त्रिरत्न से सज्जित सीर्थंकर मूर्ति विराजमान है।
ऊपर श्रीवत्स, स्वस्तिक तथा पद्म और नीचे स्वस्तिक, पुष्पपाच, मौन-मिथुन, करपात्र पवित्र पुस्तक उत्कीर्ण है। बौद्ध परम्परा में भी श्रीवत्स का अंकन मथुरा से प्राप्त चक्र फलक पर प्राप्त होता है। अभिलेखों में भी श्रीवत्स का अंकन होता रहा है। अजर जुन्नार के लेखों का प्रारम्भ श्रीवत्स प्रतीक के अकल से होता है। खारकेत के हाथीगुमका शिलालेख के प्रारम्भ में बाई और प्रथम से पंचम पंक्तियों की सीध में ऊपर श्रीवास तथा उसके नीचे स्वस्तिक का एक-एक प्रतीक हैप्रतीक देखिए-
(५) तमिलनाडु की जैन गुफाओं में उत्कीर्ण तृतीय शती ई.पू. के जैन शिलालेखों में भी श्रीवत्स और स्वस्तिक का अंकन हुआ है मथुरा के एक कुषाणकालीन न आयागपड़ पर उत्कीर्ण स्तूप की बोरियों के उपशीर्ष पर भी श्रीवत्स का प्रतीक उत्कीर्ण है-
(६) यह अलंकरण विधिन था महापुरुष लक्षण के रूप में श्रीवत्स का अंकन कालान्तर में श्रीवत्स महापुरुष के लक्षण के रूप में प्रयुक्त होने लगा आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि (२.१३६) में इसे रोमावत वक्षस्थलको श्रीस से युक्त माना श्रिया युक्तो वत्सोन श्रीवत्सः रोमावर्त विशेष जैन तीर्थंकरों के अनेक लक्षणों में श्रीवत्स भी एक लक्षण माना जाने लगा। मानसार में भी तीर्थकर के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिहून आवश्यक माना गया है-
निराभरणसर्वानिर्वस्त्रांगं मनोहरम् ।
सर्ववक्षस्थले हेमवर्ण श्रीवत्सलांछन ।।५५.४६
काणकाल में श्रीवता का अंकन तीर्थकर के वक्षस्थल पर किया जाने लगा उसके पूर्व श्रीवत्स मांगलिक चिह्न के रूप में प्रयुक्त होता था और उसे अगल-बगल में कहीं भी अंकित कर देते थे। कुषाणकालीन मथुरा की जैन मूर्तियों की पहचान का आधार यही रहा है। वहीं मूर्ति के स्थल पर पाया जाने वाली कालीन श्रीवत्स का ही अलंकृत रूप है। लखनऊ संग्रहालय में संग्रहीत मूर्तियों और विदिशा क्षेत्र में प्राप्त मूर्तियों के वक्षस्थल पर उत्कीर्ण दस प्रतीक के विविध रूपों के अध्ययन करने पर कुषाणकाल और गुप्तकाल में हुए उसके जलकूत विकास का दृश्य सामने आ जाता है।
यह विकास कही कमल जैसा दिखता है-
(७) तो कहीं तारा के ईट जैसा
(८) और कहीं वह चल पुष्प के समान लगता है
(६) कहीं पदल रूप दिखाई देता है।
बेंगलोर संग्रालय में लगभग छत की ऐसी जैन प्रतिमा संग्रहीत है जिसमें श्री मूर्ति के दधि के ऊपरी भाग में अंकित
(१०) निभाषित के अप्रैल-मई २०१० के अंक के मुख पृष्ठ पर लगभग आठवीं शती की मेलाथितामूर (पांडिचेरी) से प्राप्त तीर्थकर पार्श्वनाथ की ऐसी प्रतिमा का चित्र मुख पृष्ठ पर दिया गया है जिसमे प्रतिमा के दायें कन्धे के नीचे त्रिकोणाकार
(D) श्रीवत्स चित्रित है। मथुरा से प्राप्त एक अन्य प्राचीन मूर्ति पर यह श्रीवासीचे तीन नुकीली छुरियों बौद्ध प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण श्रीवत्स श्री जैन प्रतिमाओं के समान बौद्ध प्रतिमाओं पर भी मिलता है पर यह कुछ दूसरे रूप में ही है।
यहाँ यह दृष्ट है कि साहित्य में रिसद्वार्थ के केशों को श्रीवत्स जैसा विन्यस्त कहा गया है। इसलिए साधारणतः कुछ प्रतिमाओं पर श्रीवास का चिह्न नहीं मिलता परन्तु इलाहाबाद संग्रहालय में द्वितीय शती की एक ऐसी बुद्ध मूर्ति है जिसमे वक्षस्थल पर जैन प्रतिमा जैसा प्रतीक अंकित मध्य एशिया से कुषाणकालीन (३-४ [धी शती ई.) ऐसी बुद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई है
जिसके चड़ा पर सपाटी की जगह अलंकृत श्रीवत्स नीचे अपन और बीकोर वैदिका मंगलकलश और सदन कमल आवत है ऐसी और भी अनेक युद्ध मूर्तियां मिली है। कहीं-कहीं कुछ मूर्ति के अंगूट के तल पर नन्दिषद या त्रिरत्न और स्वस्तिक के साथ श्री का भी अंकन हुआ है। चौद्ध आचाप पर भी उसका अंकन हुआ है।
वैष्णव प्रतिमाओं में श्रीवत्स का अंकन श्रीवत्स का अफन सर्वप्रथम जैन प्रतिमाओं में प्रारम्भ हुआ। उसके बाद यह परम्परा बौद्धों ने ग्रहण की। तत्पश्चात् वैष्णवों ने भी उसे स्वीकार किया। मथुरा से प्राप्त वराह और बलराम की मूर्तियों में श्रीवास का अंकन हुआ है। गुप्तयुगीन प्रतिमाओं में यह प्रवृत्ति अधिक दिखी और फिर उत्तरफाल में भी इलाहाबाद संग्रहालय ११वी सती की तीन विष्णु की मूर्तियों के स्थल पर श्रीवासका चतु दृष्टव्य है। विष्णु के अतिरिक्त वराह, कृष्ण, वासुदेव, बलराम सूर्य आमा, योगनारायण, कार्तिकेय, शिव, भैरव, वायु, हनुमान, इन्द्र आदि की मूर्तियों में भी श्रीवास का अफन हुआ है।
उपसंहार इस प्रकार श्री का प्रारम्भिक रूप मानवाकृति रहा है जो न की त्रिलोक परम्परा से मिलता-जुलता है। बाद में मांगलिक विहून के रूप में स्वीकृत हुआ। भारतीय कला में शुगयुग से लेकर कुलतक (२-३ शदी ई.) का अंकन वह उसी रूप में होता रहा। उत्तरकाल में महापुरुष लक्षण के रूप में उसका उपयोग होने लगा। इस रूप में उसका प्रारम्भ जैन परम्परा में मथुरा की मूर्तिकला से हुआ बौद्ध और वैष्णव मूर्तिकला में श्रीवत्स का प्रयोग जैन परम्परा के अनुकरण से हुआ मालिक चिह्न के रूप में उसका प्रयोग गुप्तकाल के बाद नहीं हुआ इसका सुन्दर विवेचन डॉ. श्रीवास्तव ने किया है।
प्रोफेसर भागचन्द्र जैन ‘भास्कर’