श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में सत्य धर्म के विषय में कहा है
दय—धम्महु कारणु दोस—णवारणु इह—भवि पर—भवि सुक्खयरू।
सच्चु जि वयणुल्लउ भुवणि अतुल्लउ बोलिज्जइ वीसासधरू।।
सच्चु जि सव्वहं धम्महं पहाणु, सच्चु जि महियलि गरुउ विहाणु।
सच्चु जि संसार—समुद्द—सेउ, सच्चु जि सव्वहं मण—सुक्ख—हेउ।।
सच्चेण जि सोहइ मणुव—जम्मु, सच्चेण पवत्तउ पुण्ण—कम्मु।
सच्चेण सयल गुण—गण महंति, सच्चेण तयस सेवा वहंति।।
सच्चेण अणुव्वय—महवयाइं, सच्चेण विणासइ आवयाइं।।
हिय—मिय भासिज्जइ णिच्च भास, ण वि भासिज्जइ पर—दुह—पयास।
पर—बाहा—यरू भासहु म भव्वु, सच्चु जितं छंडहु विगय—गव्वु।
सच्चु जि परमप्पउ अत्थि इक्कु, सो भावहु भव—तम—दलण—अक्कु।।
रूंधिज्जइ मुणिणा वयण—गुत्ति, जं खणि फिट्टइ संसार—अत्ति।
घत्ता— सच्चु जि धम्म—फलेण केवलणाणु लहेइ जणु।
तं पालहु भो भव्व भणहु म अलियउ इह वयणु।।
अर्थ — सत्य धर्म, दयाधर्म का कारण है, दोषों को दूर करने वाला है, इस लोक और परलोक में सुख को देने वाला है। लोक में सत्यवचन की किसी से तुलना नहीं की जा सकती, इसे विश्वास के साथ बोलना चाहिए।
सत्यधर्म सर्वधर्मों में प्रधान है, सत्य पृथ्वी तल पर सबसे श्रेष्ठ विधान है। सत्य, संसार समुद्र को पार करने के लिए पुल के समान है और यह सब जीवों के मन को सुख देने वाला है।
इस सत्य से ही मनुष्य जन्म शोभित होता है, सत्य से ही पुण्यकर्म बँधता है, सत्य से ही सम्पूर्ण गुणों का समूह महानता को प्राप्त हो जाता है और सत्य से ही देवगण सेवा करते हैं।
सत्य से अणुव्रत और महाव्रत होते हैं, सत्य से आपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। नित्य ही हित—मित वचन बोलना चाहिए, पर को दु:खदायी ऐसे वचन कभी नहीं बोलना चाहिए।
हे भव्य! दूसरों को बाधा—पीड़ा करने वाले वचन कभी मत बोलो, यदि वह वचन सत्य भी हो तो भी गर्वरहित हो उसे छोड़ दो। क्योंकि सत्य ही एक मात्र परमात्मा है, वह भवरूपी अंधकार को दलन करने के लिए सूर्य के समान है अत: उस सत्य की नित्य ही भावना करो।
मुनि वचनगुप्ति का निरोध करते हैं, वह क्षणमात्र में संसार के दु:खों का अंत कर देती है।
सत्य धर्म के फल से मनुष्य केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इसलिए हे भव्य! तुम सत्य धर्म का पालन करो और इस भव में झूठ वचन कभी मत बोलो।
श्रीवंदक की कथा
कनकपुर के राजा धनदत्त का श्रीवंदक मंत्री बौद्ध था। किसी दिन राजमहल की छत पर राजा और मंत्री बैठे थे, आकाश मार्ग से दो चारण मुनि जाते हुये दिखे। राजा ने विनय से उनका आह्वान किया जिससे वे उनकी छत पर उतरे। राजा ने उन्हें उच्च आसन पर विराजमान करके नमस्कार आदि करके उपदेश के लिये प्रार्थना की। उपदेश के बाद प्रभावित होकर श्रीवंदक ने सम्यक्त्व के साथ श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। दूसरे दिन श्रीवंदक अपने बौद्ध गुरु की वंदना करने नहीं गया तब गुरु ने उसे बुलाया। उसने वहाँ जाकर नमस्कार न करके अपने व्रत ग्रहण का सर्व समाचार सुना दिया। बौद्ध गुरु ने पुन: उसे खूब समझा कर वह धर्म छुड़ा दिया और बोला कि ये लोग इंद्रजालिया हैं, कहीं कोई साधु आकाश में चल सकते हैं ?
दूसरे दिन राजसभा में राजा ने आकाशगामी मुनियों की सारी कथा सुनाई और श्रीवंदक से कहा कि आपने भी जो कल आँखों से दिगंबर मुनियों का प्रभाव देखा है सो कहिये। श्रीवंदक ने असत्य बोल दिया और कहा मैंने कुछ भी नहीं देखा है। उसी समय उसकी दोनों आँखें मुनि निंदा के पाप से पूâट गर्इं। उस समय सभी ने मंत्री के असत्य भाषण की निन्दा करके जैनधर्म की खूब प्रशंसा की।
जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नम:।