उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म

उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म : जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:।

श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के विषय में कहा है

बंभव्वउ दुद्धरू धरिज्जइ वरू पेडिज्जइ बिसयास णिरू।
तिय—सुक्खइं रत्तउ मण—करि मत्तउ तं जि भव्व रक्खेहु थिरू।।
चित्तभूमिमयणु जि उप्पज्जइ, तेण जि पीडिउ करइ अकज्जइ।
तियहं सरीरइं णिंदइं सेवइ, णिय—पर—णारि ण मूढउ देयइ।।
णिवडइ णिरइ महादुह भुंजइ, जो हीणु जि बंभव्बउ भंजइ।।
इय जाणेप्पिणु मण—वय—काएं, बंभचेरू पालहु अणुराएं।।
तेण सहु जि लब्भइ भवपारउ, बंभय विणु वउ तउ जि असारउ।
बंभव्बय विणु कायकिलेसो, विहल सयल भासियइ जिणेसो।
बाहिर फरसिंदिय सुह रक्खउ, परम बंभु अिंभतरि पेक्खउ।
एण उपाएं लब्भइ सिव—हरू, इम ‘रइधू’ बहु भणह विणययरू।।
घत्ता— जिणणाह महिज्जइ मुणि पणमिज्जइ दहलक्खणु पालियइ णिरू।
भो खेमसींह—सुय भव्व विणयजुय होलुव मण इह करहु थिरू।।

अर्थ — दुर्धर और उत्कृष्ट ब्रह्चर्य व्रत को धारण करना चाहिए और विषयों की आशा का त्याग कर देना चाहिए। यह प्राणी स्त्री सुख में रत होकर मनरूपी हाथी से मदोन्मत्त हो रहा है, इसलिये हे भव्यों ! स्थिर होकर उस ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करो।

यह कामदेव चित्तरूपी भूमि में उत्पन्न होता है, उससे पीड़ित होकर यह जीव न करने योग्य कार्य को भी कर डालता है। वह स्त्रियों के िंनद्य शरीर का सेवन करता है और मूढ़ होता हुआ अपनी तथा पराई स्त्री में भेद नहीं करता है।

जो हीन पुरुष ब्रह्मचर्य व्रत का भंग करता है वह नरक में पड़ता है और वहाँ महान् दु:खों को भोगता है। यह जानकर मन—वचन—काय से अनुराग रहित होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करो।

इस व्रत से जीव संसार के तीर को प्राप्त कर लेता है। इस ब्रह्मचर्य व्रत के बिना व्रत और तप सब असार (निष्फल) हैं। ब्रह्मचर्य व्रत के बिना जितने भी कायक्लेश तप किये जाते हैं वे सब निष्फल हैं, ऐसा श्री जिनेन्द्र देव कहते हैं।

बाहर में स्पर्शन इन्द्रियजन्य सुख से अपनी रक्षा करो और अभ्यंतर में परमब्रह्म स्वरूप का अवलोकन करो। इस उपाय से मोक्षरूपी घर की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ‘रइधू कवि’ बहुत ही विनय के साथ कहते हैं।

जिनेन्द्र देव द्वारा जिसकी महिमा गाई गई है और मुनिगण जिसे प्रणाम करते हैं, उस दशलक्षण धर्म का निरन्तर ही पालन करो।

हे भव्यों ! विनययुक्त क्षेमिंसह के पुत्र होलू के समान तुम अपने मन को इन्हीं दश धर्मों में स्थिर करो।

हे भव्यों ! विनययुक्त क्षेमिंसह के पुत्र होलू के समान तुम अपने मन को इन्हीं दश धर्मों में स्थिर करो।

संस्कृत की पंक्तियों में देखें ब्रह्मचर्य धर्म की व्याख्या

आत्मैव ब्रह्म तस्मिन् स्यात् चर्येति ब्रह्मचर्यभाक्।
वासो वा गुरुसंघेऽपि ब्रह्मचारी स उत्तम:।।१।।
एकमंवं बिनाऽसंख्यिंवदूनां गणना नु का?
ऋते बिनाव्रताल्लोकेऽन्यव्रतानां फलं कुत:?।।२।।
अभुक्त्वापि परित्यत्तं विश्वमुच्छिष्टवत् पुरा।
यैस्तान्नमामि भवत्याहं कौमारब्रह्मचारिणः।।३।।
अणुब्रह्मव्रती श्रेष्ठी यशस्वीह सुदर्शनः।,
सीताया: शीलमाहात्म्यात् अग्निर्वारिसरोऽभवत्।।४।।
स्वब्रह्माणि रमित्वाहं हित्वा सर्वान् विकल्पकान्।
लब्ध्वा ज्ञानवर्ती लक्ष्मीं भविष्यामि जगत्पतिः।।५।।‘‘अनुभूताङ्गनास्मरणकथाश्रवणस्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्य परिपूर्णमवतिष्ठते। स्वतंत्रवृत्तिनिवृत्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम्।

अनुभूत स्त्री का स्मरण, उनकी कथाओं का श्रवण और उनसे संसक्त शयन, आसन आदि इन सबका त्याग करना ब्रह्मचर्य है अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिये गुरुओं के पास रहना सो ब्रह्मचर्य है१।’’

‘आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है अथवा गुरु के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है। इस विधचर्या को करने वाला उत्तम ब्रह्मचारी कहलाता है। जिस प्रकार से एक (१) अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है? नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल वैâसे मिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता। अर्थात् नहीं मिल सकता। पहले बिना भोगे भी जिन्होंने इस विश्व को उच्छिष्ठ के सदृश समझकर छोड़ दिया है, मैं उन बाल ब्रह्मचारियों को नमस्कार करता हूँ। देखो! सुदर्शन सेठ के ने ब्रह्मचर्याणुव्र का ही पालन किया था फिर भी वे आज तक यशस्वी हैं। सीता के शील के माहात्म्य से अग्नि भी जल का सरोवर हो गयी थी। मैं भी सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करके ज्ञानवती लक्ष्मी को प्राप्त करके पुन: निश्चित हो तीन लोक का स्वामी हो जाऊँगा।।१ से ५।। ऐसी भावना सतत करनी चाहिये।

विद्या और मंत्र भी ब्रह्मचर्य से ही सिद्ध होते हैं। किसी भी विधि—िवधान व अनुष्ठान में ब्रह्मचर्य के बिना सिद्धि नहीं मिल सकती। जो ब्रह्मचर्य से च्युत हो जाते हैं उनका नाम लेना भी पाप समझा जाता है, चूँकि वह ब्रह्मघाती है ।

कहानी

शिवकुमार नाम के चक्रवर्ती पुत्र ने विरक्त होकर तीन हजार स्त्रियों के बीच में रहते हुये थी ‘असिधारा’ व्रत अर्थात् निरतिचार ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया। चौंसठ हजार वर्ष तक इस प्रकार असिधारा व्रत का धारण करके वे स्पर्ग में महर्द्धिक देव हुये । वहाँ से आकर जम्बूकुमार हो गये हैं । किसी समय पुष्कलावती देश में राजभवन के निकट किसी सेठ के घर में चारणऋद्धिधारी श्रुतकेवली ऐसे सागरचन्द्र नाम के मुनिराज आहार के लिये पधारे। सेठ जी ने शुद्ध भावपूर्वक नवकोटि विशुद्ध प्रासुक आहार मुनिराज को दिया। ऋद्धिधारी मुनिराज को दान देने के माहात्म्य से सेठ के आँगन में आकाश से रत्नों की वृष्टि आदि पंच आश्चर्य होने लगे। उस समय जय—जयकार शब्दों के द्वारा कोलाहल के पैल जाने पर राजभवन में स्थित राजपुत्र शिवकुमार ने कौतुकपूर्वक बाहर देखा। अहो्! मैंने किसी भव में इन मुनिराज का दर्शन किया है। ऐसा सोचते ही उसे तत्क्षण जाति स्मरण हो गया। पूर्वभव के ये बड़े भाई हैं, ऐसा निश्चित करके वह मुनिराज के पास आया और स्नेह के अतिरेक से मूच्र्छित हो गया। इस वृतांत को सुनकर चक्रवर्ती स्वयं वहाँ आकर पुत्र के मोह से व्याकुल होते हुए अत्यधिक विलाप करने लगे। पिता के इस प्रकार शोक को देखकर अत्यर्थ विरक्त हो कुमार ने जैसे—तैसे घर में रहना स्वीकार कर लिया और उसी दिन से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने मित्र दृढ़वर्मा के द्वारा भिक्षा से लोय गये कृत कारित आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन को कभी—कभी ग्रहण करता था।

उसी दिन से कुमार निश्चितही सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके एक वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी होता हुआ मुनि के समान घर में रहता था। बहुत प्रकार के पक्ष, मास उपवास आदि रूप से अनशन आदि तपों को करते हुए महाविरक्तमना कुमार ने पाँच सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए असिधाराव्रत (पूण्र ब्रह्मचर्य व्रत) का पालन किया था। इस प्रकार से चौंसठ हजार वर्ष तक असधिाराव्रत का पालन करते हुए आयु के अंत में दिगम्बर मुनि होकर समाधिपूर्वक मरण करके ब्रह्मोतर नामक छठे स्वर्ग में दश सागर की आयु को प्राप्त करने वाला विद्युन्माली नाम का महान अहमिंद्र हो गया।

श्रेणिक महाराज द्वारा अनुशासित राजगृह नगर में अर्हद्दास नाम के सेठ रहते थे। उनकी धर्म परायणा जिनमती नाम की भार्या थीं। किसी समय रात्रि के पिछले भाग में जिनमती सेठानी ने जंबूवृक्ष आदि पंच उत्तम—उत्तम स्वप्न देखे। प्रात:काल अपने पति के साथ जिनमंदिर में जाकर तीन ज्ञानधारी मुनिराज के मुखारविंद से ‘चरम शरीरी पुत्र का तुम्हें लाभ होगा’ ऐसा सुनकर दोनों जन बहुत ही संतुष्ट हुये। विद्युन्माली नाम का अहमिंद्रचर जीव स्वर्ग से च्युत होकर जिनमती के गर्भ में आया और नवमास के अनन्तर जिनमती ने पुत्र को जन्म दिया।

फाल्गुन मास की शुक्लपक्ष र्पूिणमा के प्रात:काल पुत्र का जन्म होने पर उत्सव मनाया गया। दान, सम्मान, नृत्य, गीत आदि के द्वारा सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण हो गया। माता—पिता ने उस बालक का ‘जंबूकुमार’ यह नामकरण किया। बचपन में वह कुमार सभी गुण और सभी कलाओं में विख्यात थे, पवित्रर्मूित और पुण्यात्मा थे।

युवावस्था में प्रवेश करने पर उसी नगर के सागरदत्त आदि चार सेठों ने अपनी—अपनी पुत्रियों की जंबूकुमार के साथ ब्याह करने के लिये सगाई कर दी थी, वे कन्यायें पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नाम वाली बहुत ही सुन्दर और नवयौवना थीं।

कदाचित् बसन्त ऋतु की क्रीड़ा में जंबूकुमार ने अपनी शक्ति के बल से एक मदोन्मत्त हाथी को वश में कर लिया जिससे कि वे सर्वत्र प्रशंसा को प्राप्त हुये।

किसी समय जंबूकुमार ने रत्नचूल नाम के विद्याधर को युद्ध में जीतकर मृगांक नामक राजा की विशालवती कन्या की रक्षा की और राजा श्रेणिक के साथ उसका विवाह हो गया। अनन्तर युद्ध क्षेत्र को देखकर जंबूकुमार के मन में महती दया के साथ—साथ ही वैराग्य उत्पन्न हो गया।

राजगृही नगरी के उपवन में अपने पाँच सौ शिष्यों सहित श्री सुधर्माचार्य वर्य पधारे। जंबूकुमार वहाँ पहुँचे, उन्हें नमस्कार कर स्तुति आदि के द्वारा उनकी पूजा करके और उनसे पूर्व जन्म के वृत्तांत को सुनकर जैनेश्वरी दीक्षा की याचना की। आचार्यश्री ने कहा कि तुम घर में जाकर मात—पिता से दीक्षा की बात कह दी। मोह के माहात्म्य से माता—पिता ने जिस—तिस किसी प्रकार से उसी दिन ही जिन से सगाई हुई थी उन चारों कन्याओं के साथ विवाह करा दिया और उसी रात्रि में एक कमरे में चारों ही नव—विवाहित पत्नियों के साथ बैठे हुये वे कुमार उन स्त्रियों से अलिप्त रहते हुये वैराग्य को बढ़ाने वाली कथाओं से रात्रि बिताने लगे।

इसी बीच अत्यन्त िंचतित हुई माता जिनमती बार—बार जंबूकुमार के कमरे के पास घूम रही थीं, कि कुमार इन स्त्रियों में आसक्त होता है या नहीं? उसी समय विद्युच्चर नाम का चोर चोरी करने के लिए उस भवन में आया था। इस घटना को जानकर माता जिनमती के अग्राह से वह चोर बहुत प्रकार के उपायों से जंबूकुमार को घर में रहने के लिये समझाने लगा। किन्तु कुमार ने सभी उपेक्षा करके प्रात:काल ही गुरु के पास पहुँच कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, उस समय विद्युच्चर चोर भी अपने पाँच सौ साथियों के साथ दीक्षित हो गया, पिता अर्हद्दास ने भी दीक्षा ले ली। माता जिनमती ने भी अपनी चारों बहुओं के साथ सुप्रभा र्आियका के समीप आर्यिका दीक्षा ले ली। जिस दिन सुधर्माचार्य गुरु मुक्ति को प्राप्त हुये हैं उसी दिन जंबूस्वामी को केवलज्ञान प्रगट हो गया, इसलिये जंबूस्वामी अनुबद्ध केवली कहलाये हैं। जंबूस्वामी के मोक्ष जाने पर उस दिन से कोई केवली नहीं हुये हैं।

धन्य हैं ये जंबूस्वामी, कि जो पूर्वभव में असिधारा व्रत का अनुष्ठान करके इस भव में तत्काल विवाही हुई नवीन पत्नियों में सर्वथा अनासक्त होते हुये अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके मुक्ति लक्ष्मी में आसक्त हो गये, उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार होवे।

महिमा ब्रम्हचर्य की

भीष्म पितामह ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत के प्रसाद से लौकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लिया था। विशल्या के प्रभाव से लक्ष्मण के लगी हुई ‘अमोघशक्ति’ नाम की विद्या का प्रभाव खत्म हो गया था। किन्तु विवाहित होने के बाद में उसमें वह विशेषता नहीं रह सकती थी। इस प्रकार से पूर्ण ब्रह्मचर्य की महिमा तो अलौकिक है ही। यह तीन लोक पूज्य व्रत माना जाता है। किन्तु जो एक देश रूप ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वे भी देवों द्वारा पूजा को प्राप्त होते हैं।

सीता, मनोरमा, सेठ सुदर्शन आदि के उदाहरण विश्व प्रसिद्ध हैं। किन्तु जो व्यभिचार की भावना भी करते हैं वे लोक में निंद्य होकर अपयश के भागी बनते हैं तथा परलोक में दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। उनका नाम भी लोगों को नहीं सुहाता है जैसे कि रावण, सूर्पनखा, दु:शासन आदि। कुछ लोगों का कहना है कि भोगों को भोगकर पुन: त्याग करना चाहिये अन्यथा इन्द्रियों का दमन नहीं हो सकता है किन्तु यह सर्वथा गलत धारणा है। देखो ! अग्नि में यदि तीन लोक प्रमाण भी ईंधन डालते चले जाओ तो क्या वह कभी तृप्त हो सकती है? नहीं, वह तो जलती ही रहेगी और उसकी ज्वालायें बढ़ती ही चली जायेंगी। उसी प्रकार से भोगों की लालसा भोगने से कभी भी शांत न होकर वृद्धिगंत ही होती है अत: उसको शांत करने के लिए शील की नव बाड़ लगानी चाहिए और मन—वचन—काय से स्त्री के सम्पर्क को छोड़कर आत्मा के अपूर्व आनन्द का अनुभव करना चाहिए। विषयों में आसक्त हुए मनुष्य प्राय: विवेक शून्य हो जाते हैं।

कहा भी है

चक्षुषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित्१।
अन्धा मनुष्य चक्षु से ही नहीं देखता है किन्तु विषयों में अंधा हुआ मनुष्य किसी भी प्रकार से नहीं देखता है। अत: हमेशा वैराग्य भावना आदि पाठों को पढ़ते हुए अंतरंग में विरक्ति को बढ़ाना चाहिए। जैसाकि वैराग्यभावना में भी बताया है –

‘ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर मनवांछित फल पावे।
तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके लहर जहर की आवे ।।
बिना ब्रह्मचर्य के आज तक किसी ने मुक्ति को प्राप्त न किया है और न कर ही सकते हैं। ऐसा समझकर ब्रह्मचर्य व्रत की उपासना करते हुए अपने आत्मिक सुख को प्राप्त करना चाहिए।

जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:।

दश धर्म एक कल्पवृक्ष है

क्षमामूल मृदुत्वं स्यात् , स्कंध शाखा: सदार्जवम्।
शौचं कं सत्यपत्राणि, पुष्पाणि संयमस्तप:।।१।।
त्यागश्चाकिञ्चनो ब्रह्म मंजरी सुमनोहरा।
धर्मकल्पद्रुमश्चैष , दत्ते स्वश्च शिवं फलम्।।२।।
धर्मकल्पतरो ! त्वाहं समुपास्य पुन: पुन:।
ज्ञानमत्या श्रिया युक्तं, याचे मुक्त्यैकसत्फलम्।।३।।

क्षमा जिसकी जड़ है, मृतुता स्वंध है, आर्जव शाखायें हैं, उसको सिचित करने वाला शौचधर्म जल है सत्यधर्म पत्ते हैं, संयम, तप और त्याग रूप पुष्प खिल रहे हैं, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य धर्म रूप सुन्दर मंजरियाँ निकल आई हैं। ऐसा यह धर्मरूप कल्पवृक्ष स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देता है। हे धर्मकल्पतरो ! मैं तुम्हारी पुन: पुन: उपासना करके तुमसे ज्ञानमती लक्ष्मी से युक्त मुक्तिरूपी एक सर्वोत्कृष्ट फल की ही याचना करता हूँ।।१ से ३।।