uttamakinchnya

दशलक्षणधर्म : उत्तम अकिंचन’ यानी आत्मकेंद्रित करना

उत्तम आकिचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती।
जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें अकिंचन, एकदम खाली होना आवश्यक है। यह आत्मा,संकल्प, विकल्प रूप कर्तव्य भावों से संसार सागर में डूबती रहती है।
परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही अकिंचन धर्म की भावधारा है। जहां पर भीड़ है, वहांपर आवाज, आकुलता और अशांतिहै किंतु एकाकी एकत्व के जीवन में न कोई आवाज है औरन कोई आकुलता और न अशांति।हम जहां पर जी रहे हैं वह कर्तव्य तो करना ही है किंतु यथार्थता का बोध हमें रहना चाहिए।
सांझ घिरते-घिरते पक्षीगणएक तरुवर पर आकर विश्राम कर लेते हैं, किंतु सुबह होते ही अपने-अपने कार्य के लिए भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संसार में हम सभी का निवास है। पुराने किसी संयोग की वजह से आप यहां एकत्रित हुए हैं किंतु आगे की यात्रा तो आपको एकाकी करनी है।
आज का यह धर्म जीवन की यात्रा को एकाकी आगे बढ़ाने का धर्म है जिसमें अपने और पराए का भेद समझकरनिर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है। जीवन में प्रतिदिन निरंतर यह भावना भाते रहना चाहिए जिससे एकाकीपन का बोध होता रहे।

“आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।
यूं कबहूं इस जीव का, साथी सगा न कोय।।”