Jain Acharya

जैनाचार्यों (Jain Acharya) द्वारा प्रणीत ग्रंथों में विज्ञान(Science) के तत्त्व

जैनाचार्यों  (Jain Acharya’s ) द्वारा प्रणीत ग्रंथों में विज्ञान के तत्त्व

जैनाचार्यों (Jain Acharya ) द्वारा ज्ञान—विज्ञान के विविध क्षेत्रों में सहस्त्रों ग्रंथों का सृजन किया गया है। इनमें से कुछ प्रकाशित हो चुके हैं एवं शेष अद्यतन पांडुलिपियों में संरक्षित है अथवा नष्ट हो चुके हैं। प्रस्तुत लेख में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत प्रकाशित / अप्रकाशित ग्रंथों में निहित विज्ञान विषयक सामग्री का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।

पाण्डुलिपियाँ भारतीय संस्कृति के ज्ञान की अनमोल धरोहर हैं। इस राशि के निर्माण में जैनाचार्यों (Jain Acharya ) का योगदान अद्वितीय है। इन पाण्डुलिपियों के विषय अनंत हैं, जिनमें सृष्टि प्रक्रिया का विज्ञान, सृष्टि में उत्पन्न जीव जगत् का उससे क्या संबंध है ? मानव जीवन का चरम लक्ष्य क्या है ? आदि का ज्ञान समाहित हैं और इन सबमें ज्योतिष, वास्तु, गणित, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, जीवविज्ञान आदि विषयों की अथाह है ज्ञान राशि संचित है।

जैनाचार्यों (Jain Acharya ) ने उपदेश, लेखन, जीवनचर्या आदि के द्वारा अपने अनुभव से प्राप्त विशिष्ट ज्ञान को प्रवाहित किया जो जन—जन के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ। मनुष्य बुद्धिजीवी प्राणी है। इसका सीधा संबंध इन सब विषयों से है, जो एक सफल और सुचारू जीवन की व्यवस्थित और वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं। ये विषय किसी जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय, धर्म विशेष से नहीं, अपितु मानवमात्र (प्राणीमात्र) से संबंधित हैं।

ग्रंथों में अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि आचार्यों को कर्मोदय से अनेक शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न हुई, किन्तु उन्होंने अपनी साधना एवं भक्ति के माध्यम से ही उन्हें दूर कर दिया। किसी बाह्य चिकित्सा की उन्हें आवश्यकता नहीं हुई। जैसे—आचार्य पूज्यपाद को नेत्र ज्योति संबंधी पीड़ा होने पर उन्होंने शांतिभक्ति की रचना की, आचार्य वादिराज को कुष्ठ रोग होने पर उन्होंने एकीभाव स्तोत्र की रचना की, धनंजय कवि ने विषापहार की रचना अपने बेटे के सर्प विष दूर करने के लिए की तो आचार्य समंतभद्र ने भस्मव्याधि रोग अपनी साधना एवं भक्ति के माध्यम से दूर कर दिया आदि आदि।

आचार्यों (Jain Acharya ) के लिए उनकी साधना और भक्ति ही चिकित्सा का कार्य कर गई, तो फिर उन्हें आयुर्वेद विषयक ग्रंथ लिखने की आवश्यकता क्या थी ? यह था उनका मानवीय दृष्टिकोण अर्थात् जनकल्याण की भावना। आचार्य संघ में चर्तुिवध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक—श्राविका) होता है। उनके उपकरार्थ अपनी आत्म साधना में से समय निकाल कर उन्होंने आयुर्वेद, ज्योतिष आदि विज्ञान विषयक विषय लिखे जो जनसाधारण के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। आयुर्वेद विषयक कतिपय ग्रंथ हैं—कल्याणकारक (उग्रादित्याचार्य), सिद्धांतरसायन, अब्टांग संग्रह (आ. समंतभद्र), निदान मुक्ताबली, मदनकामरत्न, नाड़ी परीक्षा (आ. पूज्यपाद), रसप्रयोग (सोमप्रभाचार्य), निघण्टु (अमृतनंदि) आदि। इन ग्रंथों के आधार पर परवर्ती विद्वानों ने कई भाषा टीकाएँ लिखी हैं। उनमें से एक कृति वैद्यमनोत्सव (जैन श्रावक नयनसुखदास) है। जो उपरोक्त ग्रंथों का आधार बनाकर लिखी गई है। इसकी पुष्टि स्वयं लेखक के कथन से हो जाती है यथा—

वैद्य ग्रंथ सब मथिवैं रचिहुं भाषा आन।
अर्थ दिषाउ प्रगट करि उषद रोग निदान।।
वैद मनोछव नामधरि देषि ग्रंथ सुप्रकाश।
केशवराज सुत नैणसुष श्रावक कुल निवास।
 

उपरोक्त ग्रंथों की यह विशेषता है कि ये पूर्ण रूप से शाकाहारी एवं जैनाचार पर आधारित हैं। इनमें कहीं भी हिसात्मक वस्तुओं—पदार्थों का उल्लेख नहीं मिलता है। जिससे मानव को स्वास्थ्य लाभ अपने धर्माचार के साथ मिल जाता है और वह अभक्ष्य सेवन से बच जाते हैं। इसके पीछे आचार्यों की आत्मकल्याण की भावना भी निहित है, क्योंकि कहा गया है ‘‘शरीर माद्यम् खलु धर्म साधनम्’’ अर्थात् शरीर धर्म पालन का प्रथम साधन है। स्वस्थ शरीर से ही धर्म साधना संभव है। यह उक्ति आयुर्वेद के ग्रंथों में परिलक्षित होती है। प्रकृति में वनस्पति के औषधीय गुणों का महत्त्व, इनका मानव जीवन पर प्रभाव एवं उनके विधि निषेध भी बताये गए हैं। चिकित्सा के जो उपाय बताए गए हैं वह जड़ी—बूटियों, या घरेलू नुस्खों पर आधारित हैं। जिनके कोई पाश्र्व परिणाम भी नहीं होते। रोगों का मुख्य कारण खान—पान एवं दिनचर्या की अनियमितता से वात—कफ—पित्त का प्रकुपित होना बताया गया। इसीलिए ५ अणुव्रत का उल्लेख किया गया है जिनके पालन से हम स्वस्थ्य रह सकते हैं तथा साथ ही अपने चारित्रिक, नैतिक एवं सदाचार आदि गुणों का विकास भी कर सकते हैं। वर्तमान तकनीकी युग में रोगों की पकड़ कई तरह की मशीनी जाँच के द्वारा की जाती है और इलाज जिन दवाईयों से किया जाता है वह अभक्ष्य है, एवं उनके पाश्र्व परिणाम भी होते हैं जो कई नए रोगों के जन्मदाता हैं। आयुर्वेद में र्विणत नाड़ी ज्ञान के द्वारा ही रोगों का मुख्य कारण जानकर इलाज कर दिया जाता है। यह इन ग्रंथों का वैशिष्टय है।

आकाश की ओर दृष्टिपात करते ही मानव के मन में एक जिज्ञासा पैदा होती है कि ये ग्रह—नक्षत्र क्या वस्तु हैं ? तारे क्यों टूटकर गिरते हैं ? पुच्छल तारे क्या हैं ? सूर्य प्रतिदिन पूर्व दिशा में ही क्यों उदित होता है ? ऋतुएँ क्रमानुसार क्यों आती हैं ? आदि। अत: मानव स्वभाव ही ऐसा है कि वह जानना चाहता है—क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? और क्या होगा ? वह केवल प्रत्यक्ष बातों को ही जानकर संतुष्ट नहीं होता, बल्कि उनको जानने के लिए भी उत्सुक रहता है जो परोक्ष हैं। मानव की उपर्युक्त जिज्ञासा ने ही उसे ज्योतिषशास्त्र के गंभीर रहस्योद्घाटन के लिए प्रवृत्त किया है।

ज्योतिषशास्त्र की व्युत्पत्ति ‘ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम् ’’ की गयी है। अर्थात् सूर्यादि ग्रह और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिशास्त्र कहा जाता है। ज्योतिष के मुख्य रूप से दो भेद हैं—गणित ज्योतिष या सिद्धांत ज्योतिष एवं फलित ज्योतिष। ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश, पात आदि गणित ज्योतिष के अंतर्गत तथा शुभाशुभ समय का निर्णय, यज्ञ—यागादि कार्यों के करने के लिए समय, स्थान का निर्धारण फलित ज्योतिष का विषय माना जाता है। अत: सृष्टि में ज्योतिष और आयुर्वेद का अनन्य संबंध है। मानव के समग्र विकास में जहाँ वनस्पति स्वास्थ्य की रक्षा करती है, वहीं ज्योतिष मानसिक विकास में वृद्धि करता है।

जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि का निमित्त पाकर ही कर्म अपना फल देता है। इसलिए अशुभ द्रव्य, क्षेत्र, काल से बचने के लिए आचार्यों ने ज्योतिष एवं वास्तु विषयक ग्रंथों का लेखन किया। चेतन—अचेतन पदार्थ व्यक्ति को शुभ — अशुभ दोनों रूप में प्रभावित करते हैं। मानव जीवन के साथ लौकिक व्यवहार चलाने के लिए अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब मुहूर्तों की आवश्यकता पड़ती है। जैसे विवाहोत्सव, गृहप्रवेश, गृहशुद्धि, गृहनिर्माण जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा आदि इनमें शुभ मुहूर्तों की आवश्यकता होती है। इस सब का वर्णन ज्योतिष ग्रंथों में विस्तृत रूप से उपलब्ध है। पं. आशाधर, जिनसेनाचार्य६ आदि ने अनेक प्रतिष्ठापाठ जैसे स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण किया है। वास्तु का अर्थ है मकान, मंदिर आदि का निर्माण किस तरह होना चाहिए, कौन सी दिशा शुभ—अशुभ है आदि का वर्णन करके वास्तुशास्त्रियों मानव को अशुभ (हानिकारक) निमित्तों से बचाने का प्रयास किया ने है।

जैन सिद्धांत एवं ज्योतिष को समझना गणित के बिना संभव नहीं है। जैसा कि पं.टोडरमलजी ने कहा है—‘बहुरि जे जीव संस्कृतादिक के ज्ञान सहित है, किन्तु गणिताम्नायादिक के ज्ञान के अभाव ते मूल ग्रंथ या संस्कृत टीका विषै प्रवेश न कर हूँ, तिन भव्य जीव काजे इन ग्रंथन (गणित संबंधी) की रचना करी है ।- जैन ग्रंथों में लौकिक एवं अलौकिक दोनों गणित का वर्णन होने से जैन सिद्धांत की विवेचना अत्यन्त सरल एवं बोधगम्य हो गई है।

जीवविज्ञान का विषय जैन ग्रंथों में सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) एवं छ: द्रव्य (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) के अंतर्गत प्रथम स्थान पर आया है। जैनागम में जीव के स्वभाव की व्याख्या की और वहीं दूसरी ओर पुद्गल के गुणावगुण की विस्तृत विवेचना की है। जैनधर्म पूर्णरूपेण आत्मपरक एवं अिंहसावादी है इसी कारण समस्त जैनागम में जीव व आत्मा का ही विवेचन प्रधान है। जीव के भेद—प्रभेद, जीव के भाव, इन्द्रिय, लिंग, योनि, जन्म के भेद, मरण के भेद, गति, आयु आदि का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र के १० अध्यायों में से प्रथम चार अध्यायों में विस्तृत रूप से किया गया है। इसके अलावा गोम्मटसार जीवकाण्ड में १४ गुणस्थानों एवं १४ मार्गणाओं के अंतर्गत जीव का सूक्ष्म से वर्णन है। कर्मकाण्ड में जीव कर्मों को कैसे बांधता है कर्मों की स्थिति, अस्तित्व आदि किस प्रकार रहता है इसका बड़ा सूक्ष्म विवेचन है जिसे हम जीव और कर्म विज्ञान की उपमा दे सकते हैं। षट्खण्डागम, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, तत्त्वार्थसूत्र, र्काितकेयानुप्रेक्षा आदि जीव विज्ञान का वर्णन करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में आचार्यों ने लिखे हैं तथा प्रत्येक ग्रंथ पर अनेकों हिन्दी टीकायें लिखी गई है जो हमें जैन भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। जीव की विवेचना तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वामी आचार्य ने सूत्र के माध्यम से इस प्रकार की है—

जीव का लक्षण — उपयोगो लक्षणम् (उपयोग अर्थात् ज्ञान और दर्शन ही जीव का लक्षण है)

जीव के भेद — संसारिणो मुक्ताश्च (जीव के संसारी और मुत्ता दो भेद हैं संसारिणसंसारिणसस्त्रसथावरा।

त्रस जीवों के भेद — द्बीन्द्रियादयस्त्रसा: (दो, तीन, चार और पांच इन्द्रिय जीव त्रस हैं)

स्थावर जीवों के भेद — पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:१२ (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति ये ५ स्थावर जीव के भेद हैं)

इन्द्रियों के भेद — पंचेद्रियाणि (इन्द्रियां पांच होती हैं)

इन्द्रियों के नाम — स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुश्रोत्राणि (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र)

जन्म के भेद — सम्मूर्छन गर्भोपपादा जन्म (सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद ये तीन भेद जन्म के हैं)

शरीर के भेद — औदारिकवैकियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि१५ (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये ५ शरीर के भेद हैं)

शरीर के अवयव—

अनेकांत ज्ञानमंदिर, बीना से प्राप्त भगवती आराधना की पाण्डुलिपि में लिखा है— शरीर में ३०० हड्डियाँ, ३०० संधियाँ, ४ शिराजाल, १६ महाशिरायें, ६ शिराओं के मूल, २ मांस रज्जू, पक्काशय—आमाशय में १६ आतें, ७ मलस्थान, वात पित्त कफ ३ थूणाए, १०७ मर्मस्थान, ९ मलद्वार, अपनी अंजुलि प्रमाण मस्तिष्क, १ अंजुलि प्रमाण मेद, १ अंजुलि प्रमाण वीर्य, ३ अंजुलि प्रमाण वसा चर्वी, ६ अंजुलि प्रमाण पित्त, पित्त प्रमाण ही कफ, रुधिर ३२ पल प्रमाण, मूत्र एक आढ़क प्रमाण विष्ठा ६ प्रस्थ प्रमाण स्वाभाविक रूप से २० नख, ३२ दांत हैं।

वनस्पति जीव का ही एक भेद है जिसका उल्लेख प्राचीन काल से ही ग्रंथों एवं साहित्यिक रचनाओं में मिलता है। वनस्पति का उपयोग औषधियों, सौंदर्य प्रसाधन, कृषि, भवन, वस्त्र, विधि—विधान अनुष्ठान आदि रूप में किया जाता है। आचार्यों एवं ऋषियों, मुनियों ने जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहकर इन वनस्पतियों का अध्ययन किया एवं मानव कल्याण हेतु अपनी लेखनी चलाकर वनस्पति ज्ञान से जन—जन को लाभान्वित करने के लिए ग्रंथों की रचना की।

षट् जीवनिकाय (५ स्थावर, त्रस) विषय पर जैन शास्त्रों में सूक्ष्म उल्लेख किया है। चक्षुग्राह्य जीवों का अस्तित्व स्वयं सिद्ध है, किन्तु जो चक्षुग्राह्य नहीं हैं उनमें जीवत्व स्वीकार करना जैन दर्शन की अपनी मौलिक देन है। पाँच स्थावर—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँचों में जीवत्व स्वीकार किया गया है। धवला, मूलाचार, गोम्मटसार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सम्यकज्ञानचंद्रिका, तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रंथों में कायमार्गणा के अंतर्गत इनकी विस्तृत विवेचना हैं

जैन शास्त्रों में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि जीवों से लेकर अत्यन्त सूक्ष्म जीवों तक का वर्णन जैनाचार्यों ने किया है। जीवराशि की रक्षा का भार भी मानव पर है। अिंहसा धर्म का पालन वह जीव का सूक्ष्मता से अध्ययन करके ही कर सकता है एवं इनके महत्त्व को समझकर पर्यावरण संरक्षण में भी अपना योगदान दे सकता है जो वर्तमान युग की एक भयावह समस्या है।

आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अभी तक सूक्ष्मतम जीव, जीवाणु (बैक्टीरिया) एवं विषाणु (वायरस) है। निगोदिया जीवों की तरह यह भी जल, थल और नभ में प्रत्येक स्थान पर मौजूद रहते हैं। उक्त सूक्ष्म जीवों की तुलना जैन धर्म में र्विणत निगोदिया जीवों से की जाने पर समानताएँ और असमानताएँ दोनों मिलती हैं। जिनका वर्णन जैनाचार्य वर्षों पूर्व करके चले गए। इससे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों में मानव मात्र के कल्याण की भावना से वर्तमान विज्ञान से सम्बद्ध भी अनेक विषयों का विवेचन किया है।

संदर्भ स्थल—
१. दिनचर्या, संकलनकर्ता, ब्र. प्रदीप जैन पीयूष, प्रकाशक श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन समिति, बरेला पृ. ४.१३३

२. वही, पृ. २२२

३. वही, पृ. २२७

४. वैद्यनोत्सव पाण्डुलिपि, नयनुसखदास, प्राप्ति स्थान—कुंदकुंद ज्ञानपीठ, पद्य ३

५. वही, पद्य ५

६. इन्दौर ग्रंथावली, डॉ. अनुपम जैन, एवं ब्र. अनिल शास्त्री, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इंदौर

७. भारतीय ज्योतिष, नेमिचंद्र शास्त्री, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ, अध्याय १, पृ. १७

८. तत्त्वार्थ सूत्र, आ. उमास्वामी, हिन्दी टीका—पं. वैलाचंद्र शास्त्री, दिग. जैन समाज अजमेर, अध्याय २ सूत्र नं. ८, पृ. ४०।

९. वही, सूत्र नं. ३

१०. वही, सूत्र नं. १२

११. वही, सूत्र नं. १४

१२. वही, सूत्र नं. १३

१३. वही, सूत्र नं. १५

१४. वही, सूत्र नं. १९

१५. वही, सूत्र नं. ३१

१६. वही, सूत्र नं. ३६

१७. भगवती आराधना, लेखक—आ. शिवार्य, हिन्दी—पं. सदासुखदास, अनेकांत ज्ञान मंदिर बीना का शास्त्र भंडार, ग्रंथ सं. १५६६, १९६२

अर्हत् वचन अक्टूबर—दिसम्बर—२०१२