48 – अड़तालीसवां मनुष्य भव

कहा है कि पानी में डूबने के बाद कोई भी व्यक्ति अधिक से अधिक 3 बार ही ऊपर आता है, उसमें बच जाये, तो ठीक, नहीं तो फिर वह पूर्णरूपेण डूब जाता है।शास्त्रों में आता है कि हर जीव (मनुष्य) निगोद से त्रस पर्याय में अधिक से अधिक दो हजार सागर (एक सागर = असंख्य वर्ष) के लिये निकलता है फिर चौरासी लाख योनियों में बार-बार भ्रमण करता है।
इसमें मनुष्य जन्म के कुल भव अधिक से अधिक अड़तालीस ही हो सकते हैं।
 इस तरह यह जीवात्मा भवसागर में डूबते-डूबते अधिक से अधिक 48 बार मनुष्य भव को पाता है और फिर अनन्तकाल के लिये डूब जाता है।क्या आप को त्रिकाली भगवन्तों के इस कथन में विश्वास है?
अहो, हमारे सभी अरिहन्त एवं सिद्ध भगवन्त निश्चय से अपने-अपने परम पारिणामिक भाव में लीन रहकર अनन्त सुख का वेदन करते हैं तथा व्यवहार से तीन लोक के अनन्त जीवों एवं उनसे अनन्त गुणा पुद्गल द्रव्य, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य की त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को प्रत्यक्षवत् देखते और जानते हैं।
वे देख रहे हैं कि भूत, भविष्य और वर्तमान के तीनों काल में कोई भी मनुष्य त्रस पर्याय में अधिक से अधिक दो हजार सागर के लिये आता है फिर उसमें वह मनुष्य के अधिक से अधिक 48 भव ही पाता है।
अब यह भी हो सकता है कि यह आप का वर्तमान भव इस त्रस पर्याय का अंतिम भव  हो। अतः अनन्त त्रिकाली भगवन्तों के कहे हुए इन वचनों पर श्रद्धा रखकर ही अपने परम पद को पाकर खुद भी त्रिकाली भगवन्त बनना चाहिये,अन्यथा आप भी फिर से इस भवसागर में अनन्तकाल के लिये डूबकर निगोद आदि की पर्यायों में अकथनीय दुःख का वेदन करते रहेंगे.
मुनिराजों से सुना है– कि एक परावर्तन काल में ४८ मनुष्य भव मिलते हैं। जिनमें सोलह पुरुष के सोलह स्त्री के और सोलह नपुंसक के होते हैं। इनमें अनेक भव गरीबी बिमारी और तीव्र कषायमय होते है। केवल आठ भव ही ऐसे होते हैं। जिनमें मंद कषाय का उदय होता है। अर्थांत शुभोदय—पुण्योदय रहता है। आजीविकादि की विशेष चिंता नहीं होती ऐसे उदय से हित अहित का विवेक कर सकते हैं। जैन धर्म अनुयायी हो सकते है शाकाहारी, रात्रि भोजन के त्यागी, न्याय नीति के पालक—श्रावक होकर जीवन सुखमय धर्ममय व्यतीत कर सकते हैं। पुण्योदय से हम जैनी है। जैनाचार भी पालते हैं। तो जैन धर्म की वास्तविकता भी चाहिए। जिन मंदिर नव देवताओं में एक है जिसके शिखर के दर्शन मात्र से अनादि के कर्मों के बंधन में शिथिलता आ जाती है। परिणामों विशुद्धता आ जाती है। कषाय की मंदता हो जाती है। जिन मंदिर साक्षात् तीर्थंकर का समवशरण है और जिन प्रतिमा साक्षात् तीर्थंकर भगवान। समवसरण की विभूति और समवशरण की महिमा अचिंत है करोंड़ो जिव्हाऐं जिसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक जिन मंदिर नगरों शहरों कस्बों ग्रामों से अलग पर्वतों और एकांत स्थानों में बनाए जाते थे। श्रावकों को जब भक्ति के भाव आते तब वे नगरों से बाहर निकलकर नगरों से बाहर निकलकर—पसीना बहाकर पैदल चलकर जिनमंदिर में प्रसन्न चित्त पहुँचकर शुद्धि—विशुद्धि सहित प्रवेश कर श्री जिनराज प्रभु की भक्ति—पूजन बहुत ही उत्साह से करते थे। जिससे पुण्यानुबन्धी पुण्य बंधता था जिसका फल सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन का अर्थ भव के नाश का काल आ गया है। सम्यग्दृष्टि श्रावक संसार शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनिपना धारण कर तप कर सदा के लिए सिद्धशिला पर विराजमान सदाकाल अनंतकाल को सुखी हो जाता है।.