उत्तम शौच धर्म

श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में शौच धर्म के विषय में कहा है

सउच जि धम्मंगउ तं जि अभंगउ भिण्णंगउ उवओगमउ।
जर—मरण—वणासणु तिजगपयासणु झाइज्जइ अह—णिसि जिधुउ।।
धम्म सउच्चु होइ—मण सुद्धिएँ, धम्म सउच्चु वयण—धण—गिद्धिएँ।
धम्म सउच्चु कसाय अहावें, धम्म सउच्चु ण लिप्पइ पावें।।
धम्म सउच्चु लोहु वज्जंतउ, धम्म सउच्चु सुतव—पहि जंतउ।
धम्म सउच्चु बंभ—वय धारणि, धम्म सउच्चु मयट्ठ णिवारणि।।
धम्म सउच्चु जिणायम—भणणे, धम्म सउच्चु सगुण—अणुमणणे।
धम्म सउच्चु सल्ल—कय—चाए, धम्म सउच्चु जि णिम्मलभाए।।
अहवा जिणवर—पुज्ज विहाणें, णिम्मल—फासुय—जल—कय—ण्हाणे।
तं पि सउच्चु गिहत्थहं भासिउ, ण वि मुणिवरहं कहिउ लोयासिउ।।
घत्ता— भव मुणिवि अणिच्चउ धम्म सउच्चउ पालिज्जइ एयग्गमणि।
सुह—मग्ग—सहायउ सव—पय—दायउ अण्णु म चितह किं पि खिंण।।

अर्थ — शौच धर्म का अंग है, वह अभंग है, शरीर से भिन्न है और उपयोगमयी है। जरा, बुढ़ापा और मरण का विनाश करने वाला है, तीनों जगत् को प्रकाशित करने वाला है और ध्रुव है, उसका दिन—रात सतत ध्यान करना चाहिए।

यह शौच धर्म मन की शुद्धि से होता है, शौच धर्म वचनरूपी धन की गृद्धि पकड़ से होता है, शौच धर्म कषायों के अभाव से होता है और यह शौच धर्म जीवों को पापों से लिप्त नहीं करता है।

शौच धर्म लोभ का वर्जन करता है, शौच धर्म उत्तम तप के मार्ग में लगाता है, उत्तम शौच धर्म ब्रह्मचर्य के धारण करने से होता है और यह शौच धर्म आठ प्रकार के मदों के निवारण से होता है।

शौच धर्म जिनागम का कथन करने से होता है, शौच धर्म आत्मा के गुणों को सतत मनन करने से होता है, शौच धर्म शल्यों के त्याग करने से होता है और यह शौच धर्म निर्मल भावों को करने से होता है।

अथवा यह शौच धर्म जिनवर के पूजा—विधान करने से होता है और निर्मल प्रासुक जल से स्नान करने से होता है। किन्तु यह (पूजन—स्नान आदि) शौच धर्म गृहस्थों के लिए कहा गया है, मुनिवरों के लिये नहीं है क्योंकि यह लोकाश्रित है।

संसार को अनित्य समझकर एकाग्र मन से इस शौच धर्म का पालन करना चाहिए। यह सुख के मार्ग का सहायक है और शिवपद का दायक है। इसके सिवाय अन्य किसी का क्षण मात्र के लिए भी चितवन मत करो।

अयोध्या नगरी में एक सुरेन्द्रदत्त था। वह प्रतिदिन दस दीनारों से, अष्टमी को सोलह दीनारों से, अमावस को चालीस दीनारों से और चौदस को अस्सी दीनारों से भगवान् की पूजा करता था। प्रतिदिन पात्रों को दान देता तथा शील का पालन करता था और उपवासों को भी करता रहता था। किसी समय धन कमाने के लिए जल मार्ग से बारह वर्ष के लिए जाने लगा तब वह अपने मित्र रुद्रदत्त को बहुत सा धन देकर पूर्ववत् जिन पूजा आदि करने को कहकर आप चला गया। रुद्रदत्त धन पाकर लोभ में आकर उस धन को जुआ, परस्त्री सेवन आदि व्यसनों में समाप्त कर चोरी करने लगा। किसी समय कोतवाल द्वारा मारा गया और नरक में चला गया। वहाँ से निकल कर महामच्छ हुआ, फिर नरक गया, शार्दूल हुआ, नरक गया, गरुड़ हुआ, नरक गया, सर्प हुआ, नरक गया, भील हो गया, पुन: असंख्य भवों तक त्रस—स्थावर में भटकता रहा। पुन: कुछ पाप कर्म के मंद होने पर एक दरिद्र ब्राह्मण के पुत्र हुआ, उसका नाम गौतम था। पाप से सर्व कुल के क्षय हो जाने पर भीख माँगता फिरता था, बहुत ही दु:खी था। एक दिन आहार के लिये ग्राम में जाते हुये समुद्रसेन मुनिराज को देख कौतुक से उनके पीछे लग गया। वैश्रवण सेठ के यहाँ मुनि का आहार हुआ, सेठ ने उस बालक को भी भरपेट भोजन करा दिया। पुन: वह गौतम मुनि के आश्रम में पहुँचा और बोला आप मुझे अपने जैसा बना लीजिये। मुनिराज ने उसके वचन सुनकर भव्य समझकर कुछ दिन अपने पास रखा तदनन्तर उसे संयम ग्रहण करा दिया। उसने गुरुभक्ति, संयम और तपश्चरण के बल से अनेकों ऋद्धियाँ प्राप्त कर लीं। आयु के अंत में उपरिम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हो गये१।

देखो! धर्म की संपत्ति के भक्षण से उसने कितने दु:ख उठाये तथा एक बार की गुरु संगति ने उसे अहमिंद्र बना दिया। इस उदाहरण को देखकर व्यसन और धर्म के धन से हमेशा दूर रहना चाहिये।

जो मुनि के पसीने और धूलि के मैल से लिप्त शरीर के होने पर भी ग्लानि नहीं करते हैं वे ही अपने कर्म मैल को धो डालते हैं।

शुचि भूमिगतं तोयं शुचिर्नारी पतिव्रता।
शुचिर्धर्मपरो राजा ब्रह्मचारी सदा शुचि:।।

भूमि से निकला हुआ जल शुद्ध है, पतिव्रता स्त्री पवित्र है, धर्म में तत्पर राजा भी पवित्र है और ब्रह्मचारी गण सदा ही पवित्र रहते हैं। यही कारण है कि दिगम्बर मुनि स्नान नहीं करते हैं, यह उनका एक मूलगुण कहा गया है।

श्रावक स्नान आदि से व्यवहार शुद्धि करते हैं और धर्म के द्वारा आत्मा की भी शुद्धि करते हैं। तृष्णारूप अग्नि को संतोषरूपी जल से ही बुझाया जा सकता है। ‘जो ग्रहण करने की इच्छा करने वाले हैं वे नीचे गिरते हैं और जो नि:स्पृह रहते हैं वे ऊँचे उठते हैं। देखो !’ तराजू के दो पलड़ों में से एक में कुछ भार होता है वह नीचे जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। इन सब उदाहरणों को समझकर अपनी आत्मा को शौच धर्म के द्वारा पवित्र—शुद्ध बनाना चाहिये।

जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्माङ्गाय नम:।