Jain Darshan Dictionary : उ

–उ–

उक्तावग्रह – दूसरे के द्वारा कहे जाने पर वस्तु को जानना उक्तावग्रह है। जैसे ‘यह घड़ा है’ – ऐसा कहने पर घड़े को जानना।

उग्रतप – जो साधु दीक्षा के दिन एक उपवास करके पारणा करता है फिर जीवन पर्यंत एक उपवास और पारणा रुप तप करता है अथवा जो साधु एक उपवास के बाद पारणा करके दो उपवास करता है फिर पारणा करके तीन उपवास करता है इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवन पर्यंत उपवास करता है वह उग्रतप या उग्रोग्रतप ऋद्धि का धारी है।

उच्चगोत्र कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का लोक पूजित कुलो में जन्म होता है वह उच्चगोत्र कर्म है। गोत्र, कुल,वंश और सन्तान – ये सब एकार्थवाची है।

उच्चार – आहार करते समय साधु के उदर से किसी रोग के कारण उच्चार अर्थात्‌मल निकल आने पर उच्चार नाम का अन्तराय होता है।

उच्छ्‌वास-नामकर्म – सांस लेने को उच्छ्‌वास और छोड़ने को निःश्वास कहते हैं । जिस कर्म के निमित्त से जीव उचछ्‌वास और निःश्वास रुप क्रिया करने में समर्थ होता है उसे उच्छ्‌वास-नामकर्म कहते हैं ।

उत्कर्षण –कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना उत्कर्षण कहलाता है।
उत्तमार्थ-प्रतिक्रमण – समाधिमरण लेते समय जीवन भर हुए दोषों का स्मरण करके गुरु के सम्मुख आलोचनापूर्वक जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह उत्तमार्थ-प्रतिक्रमण कहलाता है।

उत्तर-कुरु – यह विदेह क्षेत्र में स्थित शाश्वत उत्तम-भोग भूमि है। इसके उत्तर दिशा में नील पर्वत, दक्षिण में सुमेरु, पुर्व में माल्यवान और पश्चिम में गन्धमादन गजदत पर्वत स्थित है।

उत्तराध्ययन – जिसमें अनेक प्रकार के उत्तरो का वर्णन है जैसे – चार प्रकार के उपसर्ग कैसे सहन करना चाहिए? बाईस प्रकार के परीषह सहन करने की विधि क्या है? इत्यादि प्रश्नो के उत्तर का वर्णन किया गया है वह उत्तराध्यायन है।

उत्पाद – द्रव्य का अपनी पूर्व अवस्था को छोड़कर नवीन अवस्था को प्राप्त करना उत्पाद कहलाता है।

उत्पाद-पूर्व – जीव, पुद्‌गल आदि का जहाँ जब जैसा उत्पाद होता है उस सबका वर्णन जिसमें हो वह उत्पाद-पूर्व नाम का पहला पूर्व है।

उत्सर्ग-मार्ग – देखिये अपवाद-मार्ग।

उत्सर्पिणी – जिस काल में जीवों की आयु, बल और ऊँचाई आदि का उत्तरोत्तर विकास होता है, उसे उत्सर्पिणी काल कहते है। इसके दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा ऐसे छह भेद है।

उदवर-फल – ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़, पीपल आदि वृक्षों के फल, उदवर-फल कहलाते है। ये त्रस जीवों के उत्पत्ति स्थान है इसलिए अभक्ष्य है अर्थात्‌खाने योग्य नहीं है।

उदय – द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के अनुरुप कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय कहलाता है।

उदरक्रिमिनिर्गम – आहार करते समय साधु के उदर से किसी रोगवश कृमि आदि निकल आने पर उदरक्रिमिनिर्गम नाम का अन्तराय होता है।

उदराग्नि-प्रशमन – जैसे अपने घर में लगी हुई अग्नि को गृहस्वामी किसी भी प्रकार से बुझाने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार साधु भी सरस या नीरस ऐसा भेद किए बिना श्रावक के द्वारा दिए गए प्रासुक आहार से उदराग्नि को शान्त करता है। अतः साधु की यह आहार चर्या उदराग्नि-प्रशमन कहलाती है।

उदीरणा – अपक्व अर्थात्‌नहीं पके हुए कर्मों को पकाना उदीरणा है। दीर्घ काल बाद उदय में आने योग्य कर्म को अपकर्षण करके उदय में लाकर उसका अनुभव कर लेना यह उदीरणा है।

उद्दिष्ट-आहार – दाता और पात्र की अपेक्षा उद्दिष्ट आहार दो प्रकार का है। दाता यदि अध कर्म संबंधी सोलह उद्‌गम दोषों से युक्त आहार साधु को देता है तो यह दाता संबंधी उद्दिष्ट आहार है। यदि पात्र अर्थात्‌साधु अपने लिए स्वयं आहार बनाए, बनवाए या आहार के उत्पादन संबंधी किसी प्रकार का विकल्प करे तो यह पात्र संबंधी उद्दिष्ट आहार कहलाता है।

उद्दिष्टाहार-त्याग-प्रतिमा – दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा के उपरान्तगृहत्याग करके जीवन पर्यन्त उद्दिष्ट आहार का त्याग कर देना और सदाचारी श्रावक के द्वारा दिया गया प्रासुक आहार दिन में एक बार ग्रहण करने कीप्रतिज्ञा लेना, यह श्रावक की ग्यारहवीं उद्दिष्ट-आहार-त्याग-प्रतिमा कहलाती है। इसे धारण करने वाले उत्तम श्रावक को ऐलक और क्षुल्लक कहा जाता है।

उद्धिन्न-दोष – बहुत समय से सील बंद करके रखी गई घी शक्कर आदि आहार सामाग्री साधु के आने पर तुरंत खोलकर देना उद्धिन्न नाम का दोष है।

उद्द्यमी-हिंसा – खेती या अन्य उद्द्योग-धंधो में होने वाली हिंसा को उद्द्यमी-हिंसा कहते हैं ।

उद्द्योत-नामकर्म – उष्णता रहित प्रकाश को उद्द्योत कहते हैं । जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में उद्द्योत होता है वह उद्द्योत नामकर्म है। यह चंद्रमा, चंद्रकांत, मणि और जुगनू आदि में होता है।

उन्मिश्रदोष – अप्रासुक जल, फल, बीज आदि से मिश्रित आहार साधु को देना उन्मिश्र दोष है।

उपकरण-दान – पिच्छी, कमण्डलु और शास्त्र आदि मोक्षमार्ग में सहायक उपकरण श्रद्धापूर्वक सद्‌पात्र को देना उपकरण-दान कहलाता है।

उपकल्की – देखिये कल्की ।

उपगूहन – मोक्षमार्ग पर चलने वाले साधक के द्वारा अज्ञानतावश या असमर्थतावश यदि कोई गलती हो जाती है तो उसे ढ़क लेना या यथासंभव उसे दूर करना उपगूहन कहलाता है। यह सम्यग्दृष्टि का एक गुण है।

उपघात-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर के अङ्ग-उपाङ्ग स्वयं उसी जीव के लिए कष्टप्रद या घातक हो जाते है वह उपघात-नामकर्म है। जैसे – विशाल तोंद वाला पेट या बारहसिंगा के बडे-बडे सींग।

उपचरित-असद्‌भूत-व्यवहार – संश्लेष रहित वस्तुओं के संबंध को बताने वाला उपचरित-असद्‌भूत-व्यवहार नय है। यह वस्तु को जानने का एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें संश्लेष से रहित सर्वथा भिन्न वस्तुओं के बीच स्वामित्व आदि की अपेक्षा संबंध का कथन किया जाता है जैसे – ‘यह देवदत्त का धन है, या ‘यह मेरा मकान है।

उपचरित-सद्‌भूत-व्यवहार – सोपाधि गुण और गुणी में भेद का कथन करना उपचरित सद्‌भूत व्यवहार नय है। यह वस्तु को जानने का एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें कर्मोंपाधि से युक्त द्रव्य के आश्रित रहने वाले गुणों को उस द्रव्य अर्थात्‌गुणी से प्रथक्‌कथन किया जाता है। जैसे – जीव के मतिज्ञान आदि गुण है-ऐसा कहना।

उपचार-विनय – आचार्य आदि पूज्य पुरुषों के आने पर स्वंय उठकर खड़े हो जाना, हाथ जोड़ना और उनके पीछे चलना यह उपचार-विनय है। उपचार विनय तीन प्रकार की है- कायिक-विनय, वाचिक-विनय और मानसिक-विनय।

उपदेश-सम्यक्त्व – तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवन चरित्र को सुनकर जो सम्यग्दर्शन होता है उसे उपदेश-सम्यक्त्व कहते हैं।

उपधान – शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ करते समय उस शास्त्र के पूर्ण होने तक विशेष नियम या व्रत धारण करना उपधान नाम का ज्ञानाचार है।

उपपाद – देव व नारकी जीवों के उत्पत्ति स्थान को उपपाद कहते है। देवलोक में देवों का उपपाद स्थान ढ़की हुई शय्या के समान होता है, जहाँ जीव अंतर्मुहूँ र्त में सुंदर शरीर की रचना कर लेता है। नारकी जीव पाप के उदय से ऊँट के मुख की आकृति वाले बिल के समान उपपाद स्थान में अत्यंत कष्टपूर्वक जन्म लेते हैं ।

उपभोग – जीवों के द्वारा जो वस्तु बार-बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते हैं । जैसे – वस्त्र-आभूषण, वाहन, आवास आदि।

उपभोगान्तराय – जिस कर्म के उदय से जीव वस्त्र , आभूषण आदि उपभोग की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते है।

उपमा-सत्य – जो उपमा सहित हो अर्थात्‌जिसमें किसी वस्तु की उपमा या समानता अन्य वस्तु से की गई हो वह वचन उपमा-सत्य है। जैसे – मुख को चन्द्रमा के समान कहना। इसी प्रकार पल्योपम, सागरोपम आदि काल को मापने के जो उपमा-माप है वह भी उपमा-सत्य है।

उपयोग -1 स्व और पर को ग्रहण करने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते है। 2 जो चेतन्य का अन्वयी है अर्थात्‌उसे छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता, वह परिणाम उपयोग कहलाता है। यह दो प्रकार का है- दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग।

उपवास – अन्न-जल आदि सभी प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है। या विषय-कषाय को छोड़कर आत्मा में लीन रहना उपवास है।

उपवेशन – आहार करते समय शारीरिक शिथिलता के कारण साधु को यदि अचानक बैठना , टिकना या सहारा लेना आवश्यक हो तो यह उपवेशन नाम का अन्तराय है।

उपशम – आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रगट न होना उपशम कहलाता है। जैसे – जल में फिटकरी ड़ालने पर मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है इसी प्रकार कर्म के उपशम से अन्तर्मुहूँ र्त के लिए जीव के परिणाम अत्यंत निर्मल हो जाते है यह उपशम की प्रक्रिया सिर्फ मोहनीय कर्म में होती है।

उपशम-श्रेणी – चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ साधक जिस श्रेणी अर्थात्‌अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय और उपशान्त कषाय नामक आठवे, नौवे, दसवे और ग्यारहवे इन चार गुणस्थानो रुप सीढ़ी पर चढ़ता है उसे उपशम-श्रेणी कहते हैं ।

उपशम-सम्यक्त्व – दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम से आत्मा में जो निर्मल श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते है। यह दो प्रकार का है- प्रथमोपशम-सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व।

उपशान्त-कषाय – जिसने समस्त मोहनीय कर्म का उपशम कर लिया है ऐसे ग्यारहवे गुणस्थानवर्ती जीव को उपशान्त कषाय कहते हैं ।

उपसर्ग –1 साधुजनों पर आने वाली विपत्ति या संकट को उपसर्ग कहते है। उपसर्ग चार प्रकार का है- मनुष्यकृत, देवकृत, तिर्यंचकृत और प्रकृतिजन्य।२ देव, मनुष्य आदि के द्वारा साधु के ऊपर उपसर्ग होने पर आहार में बाधा होती है यह उपसर्ग नाम का अन्तराय है।

उपसर्ग-केवली – जो मुनि उपसर्ग सहन करते हुए घातिया कर्मों को जीत कर केवलज्ञान प्राप्त करते है वे उपसर्ग-केवली कहलाते हैं ।

उपादान-कारण – किसी कार्य के होने में जो स्वंय उस कार्य रुप परिणमन करे, वह उपादान कारण कहलाता है। जैसे रोटी के बनने में गीला आटा उपादान-कारण है।

उपाध्याय – जो साधु जिनागम का उपदेश करते है, स्वयं पढ़ते और अन्य साधुओ को पढ़ाते है दे उपाध्याय कहलाते है। उपाध्याय परमेष्ठी चौदह विद्द्याओ के व्याख्यान करने वाले या तात्कालिक परमागम के व्याख्याता होते हैं। दीक्षा व प्रायश्चित आदि क्रियाओं को छोड़कर ये आचार्य के शेष समस्त गुणों से परिपूर्ण होते हैं ।

उपासकाध्ययनाङ्ग – जिसमें श्रावक-धर्म का विशेष विवेचन किया गया हो वह उपासकाध्ययनाङ्ग कहलाता है।

उभय-मन-वचन – सत्य और असत्य दोनों रुप पदार्थ को जानने या कहने में जीव के मन और वचन की प्रयत्न रुप प्रवृत्ति को उभय-मन-वचन योग कहते है। जैसे – कमण्डलु में जल भरने की क्षमता देखकर उसे घड़ा मानना या कहना। जल धारण की क्षमता होने से वह घड़े की तरह है पर घड़ा नहीं हैं । अतः सत्य और असत्य दोनों रुप हैं ।

उष्ण-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्‌गल स्कन्धों में उष्णता होती है उसे उष्ण-नामकर्म कहते हैं ।

उष्ण-परीषह-जय – ग्रीष्मकाल में उपवास आदि के कारण उत्पन्न दाह से पीड़ित होने पर भी जो साधु उसके प्रतिकार का विचार न करके अपने चरित्र में दृढ़ता पूर्वक स्थित रहते हैं और उष्णता के कष्ट को समतापूर्वक सहन करते है, उनके यह उष्ण-परीषह-जय है।

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