Jain Darshan Dictionary : आ

–आ–

आकस्मिक-भय – अचानक आ जाने वाली विपत्ति की आशंका से जीवों को जो भय उत्पन्न होता है वह आकस्मिक – भय है।

आकाश द्रव्य –जो समस्त द्रव्यो को अवकाश अर्थात्‌स्थान देता है उसे आकाश द्रव्य कहते है । इसके दो भेद है – लोकाकाश और अलोकाकाश।

आकाशगता-चूलिका – आकाश में गमन करने की विद्‌या एवं जप तप आदि का वर्णन करने वाली चूलिका को आकाशगता चूलिका कहते है।

आकाशगामित्व ऋद्धि – जिस ऋद्दि के प्रभाव से साधु सुखासन से बैठे-बैठे या खडे रहकर बिना डग भरे आकाश में गमन कर सकते हैं उसे आकाशगामित्व या आकाशगामिनी-ऋद्धि कहते हैं।

आकाश-चारण ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु, जीवों को बाधा न पहुंचे इस तरह चलते हुए भूमि से चार अङ्गुल ऊपर आकाश में गमन कर सकते है उसे आकाश-चारण ऋद्धि कहते है।

आकिञ्चन्य धर्म – समस्त परिग्रह का त्याग करके ‘कुछ भी मेरा नहीं है’ – इस प्रकार का निर्लोभ भाव रखना आकिञ्चन्यधर्म है।

आक्रोश-परिषह-जय – क्रोध बढ़ाने वाले, अत्यत अपमानजनक, कर्कश और निन्द्‌यनीय वचनो को सुन कर जो साधु विचलित नहीं होते और सामर्थ्यवान होकर भी उसे शान्त-भाव से सहन करते है उनके यह आक्रोश-परिषह-जय है।

आक्षेपिणी कथा – जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए तत्वो का कथन करने वाली आक्षेपिणी कथा है।

आगम – जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गए हितकारी वचन ही आगम है। आगम, सिद्धांत और प्रवचन – ये एकार्थवाची है।

आग्नेयी-धारणा – पार्थिवी-धारणा के उपरात योगी निश्चल अभ्यास से अपने नाभि-मंडल में सोलह पत्तों से युक्त कमल का ध्यान करे फिर उस कमल की कर्णिका में महामंत्र र्हृं का तथा सोलह पत्तो पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अ अ – इन सोलह अक्षरो का ध्यान करे, फिर महामंत्र र्हृं की रेफ से मद-मद निकलती धुए की शिखा का विचार करे, फिर निकलती हुई चिनगारियों और अग्नि की लपटों का चिन्तवन करे। फिर योगी मुनि अपने हृद्‌य में स्थित आठ पत्तों के कमल पर लिखे आठ कर्मों को उस अग्नि की ज्वाला में निरंतर जलता हुआ चिंतन करे। उस कमल के जलने के उपरांत शरीर के बाह्‌य में चारो ओर त्रिकोण अग्नि का चिन्तवन करे। यह बाहर का अग्निमंडल अंतरंग की मंत्राग्नि को जलाता है और उस नाभिकमल और शरीर को नष्ट करके धीरे-धीरे शान्त हो जाता है। ऐसा चिन्तवन करना आग्नेयी धारणा है।

आचाम्ल – काजी या माड सहित केवल भात के आहार को आचाम्ल कहते है।

आचाराङ्ग – जिसमें पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि रुप मुनिचर्या का वर्णन किया गया है वह आचाराङ्ग है।

आचार्य – १ जो स्वयं साधु के योग्य आचरण करते है और अन्य साधुओ से भी यथायोग्य आचरण कराते है वे आचार्य हैं । २ साधुओ को शिक्षा-दीक्षा देने वाले, उनके दोषों का निवारण करने वाले तथा अनेक विशिष्ट गुणों से युक्त संघनायक साधु को आचार्य कहते है।

आचार्य-भक्ति – आचार्यों के प्रति जो गुणानुराग रुप भक्ति होती है उसे आचार्य-भक्ति कहते हैं। यह सोलह कारण भावना में एक भावना है।

अच्छेद्य-दोष – राजा, मंत्री आदि का भय दिखाकर यदि साधु आहार प्राप्त करे तो यह अच्छेद्य नाम का दोष है।

आजीव दोष – अपनी जाति, कुल आदि की विशेषता बताकर यदि साधु आहार प्राप्त करे तो यह आजीव नाम का दोष है।

आज्ञाविचय – ‘जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित आगम ही सत्य है’ – ऐसा चिन्तन करना अथवा जिनवाणी को प्रमाण मानकर सात तत्व , छ्ह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय आदि के स्वरुप का विचार करना आज्ञाविचय नाम का धर्मध्यान है।

आज्ञा-व्यापादिकी-क्रिया –शास्त्रोंक्त आज्ञा का पालन न कर सकने के कारण उसका अन्यथा प्ररुपण करना आज्ञा-व्यापादिकी-क्रिया है।

आज्ञा-सम्यग्दर्शन – जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा को प्रधान मानकर जो सम्यग्दर्शन होत है उसे आज्ञा-सम्यग्दर्शन कहते है।

आतप – जो सूर्य आदि के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते है।

 आतप-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर मे आतप उत्पन्न होता है वह आतप नामकर्म है। सूर्य के विमान आदि मे तथा सूर्यकान्त मणि आदि पृथिवीकाय में आतप जानना चाहिए। अग्नि मूलतः उष्ण होती है परन्तु आतप-नामकर्म के उदय से सूर्य के बिंब आदि मूलतः शीतल होते है मात्र किरणे उष्ण होती हैं।

आत्म-प्रवाद – जिसमें आत्म द्रव्य का और छह प्रकार के जीव समूहो का अस्ति-नास्ति आदि विभिन्न प्रकार से निरुपण किया गया है वह आत्म-प्रवाद पूर्व नाम का आठवा पूर्व है।

आत्मभूत लक्षण – जो वस्तु के स्वरुप में निहित हो अर्थात्‌उससे पृथक न किया जा सके उसे आत्मभूत-लक्षण कहते हैं। जैसे – अग्नि में उष्णता या जीव में चेतना।

आत्मा – जो यथासंभव ज्ञान, दर्शन, सुख आदि गुणों में वर्तता या परिणमन करता है वह आत्मा है। आत्मा की तीन अवस्थाए है- बहिरात्मा, अतरात्मा और परमात्मा।

आदान-निक्षेपण-समिति – पुस्तक, पीछी, कमण्डलु आदि उपकरण जो ज्ञान व संयम में सहायक है उन्हे देखभाल और शोधन करके रखना तथा उठाना आदान-निक्षेपण समिति है। यह साधु का एक मूलगुण है।

आदिनाथ – युग के प्रारम्भ में हुए प्रथम तीर्थकर। ये कुलकर नाभिराय और उनकी रानी मरुदेवी के पुत्र थे। अयोध्या इनकी जन्मभूमि और राजधानी थी। इनका शरीर स्वर्ण की तरह आभावान और पाँच सौ धनुष ऊँचा था। चक्रवर्ती भरत और कामदेव बाहुबली इनके पुत्रथे। ब्राह्मी और सुंदरी इनकी बेटिया थीं। कर्मभूमि के प्रारंभ में प्रजा को अहिंसा-प्रधान जीवन-पद्धति सिखलाने के अभिप्राय से इन्होने असि, मसि, कृषि, विद्‌या, वाणिज्य और शिल्प इन षट्‌कर्मों का उपदेश दिया। इनकी आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व थी। बीस लाख वर्ष पूर्व का समय कुमार अवस्था में व्यतीत करके तिरेसठ लाख वर्ष पूर्व काल तक राज्य किया और एक दिन स्वर्ग की देवी नीलांजना का राजदरबार में नृत्य करते-करते अकस्मात्‌मरण होता देखकर संसार से विरक्त हो गए। जिनदीक्षा लेकर छ माह तक ध्यानस्थ रहे फिर छ माह तक साधु के योग्य आहार-विधि जानने वालो का अभाव होने से आहार का योग नहीं लगा, इस तरह एक वर्ष तक निराहार रहने के उपरान्त राजा श्रेयास के यहाँ प्रथम आहार हुआ। एक हज़ार वर्ष की कठिन तपस्या के उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त हुआ और समवसरण में सभी जीवों का कल्याण करने वाली दिव्य-ध्वनि खिरने लगी। आपके चतुर्विध संघ में चौरासी गणधर, बीस हज़ार केवलज्ञानी, बीस हजार छ सौ विक्रिया-ऋद्धिधारी, इतने ही विपुलमति मन पर्यय ज्ञानी और अन्य मुनि थे, पचास हजार आर्यिकाएं, तीन लाख श्रावक ओर पाँच लाख श्राविकाएं थीं। आपने कैलाश पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।

आदेय-नामकर्म –1 जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर प्रभायुक्त होता है उसे आदेय-नामकर्म कहते है। 2. जिस कर्म के उदय से जीव के बहुमान्यता उत्पन्न होती है वह आदेय नामकर्म कहलाता है।

आधिकरणिकी क्रिया –हिंसा के साधनों या उपकरणो को ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है।

आनुपूर्वी-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव के पूर्व शरीर का आकार नष्ट नहीं होता है वह आनुपूर्वी नामकर्म है। आनुपूर्वी नामकर्म के उदय से ही जीव का अपनी इच्छित गति में गमन होता है। यह चार प्रकार का है – नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी।

आप्त – वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी अर्हन्त-भगवान् आप्त कहलाते है।

आबाधा – कर्म का बन्ध होने के पश्चात्‌वह तुरंत ही उदय में नहीं आता बल्कि कुछ समय बाद परिपक्व होकर उदय में आता है। अतः जीव के साथ बंधे हुए कर्म जितने काल तक उदय या उदीरणा के योग्य नहीं होते उस काल को अबाधा कहते है। आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति होने पर अबाधा सौ वर्ष की होती है।

आभ्यन्तर-तप – जिससे मन का नियमन हो वह आभ्यन्तर-तप हे । प्रायश्चित्त, विनय, वेयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग – ये छ्ह आभ्यन्तर-तप है।

आमर्ष-औषधि-ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के स्पर्श मात्र से जीव निरोगी हो जाते है उसे आमर्ष-औषधि-ऋद्धि कहते है।

आम्नाय – उच्चारण की शुद्धिपूर्वक पाठ को पुनः पुनः दुहराना आम्नाय नाम का स्वाध्याय है।

आयतन – सम्यग्दर्शन आदि गुणों के आधार या आश्रय को आयतन कहते है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और इन तीनो के उपासक – ऐसेछह आयतन है।

आयु-कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य आदि भव धारण करता है उसे आयु-कर्म कहते है। नरकायु, तिर्यचायु, देवायु और मनुष्यायु – ये चार भेद आयुकर्म के है।

आरम्भ –1जीवों को पीड़ा पहुँचाने वाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है। 2 कार्य करने लगना सो आरंभ है।

आरम्भ-त्याग-प्रतिमा – सातवीं ब्रह्माचर्य प्रतिमा धारण करने के उपरान्त जीवन पर्यन्त नौकरी, खेती, व्यापारादि आरम्भ नहीं करने की प्रतिज्ञा लेना, यह श्रावक की आरम्भ-त्याग नामक आठवीं प्रतिमा है।

आरम्भी-हिंसा – गृहस्थी संबंधी कार्य करने में जो हिंसा होती है उसे आरम्भी-हिंसा कहते है।

आराधना – सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारो का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, इन्हें दृढ़तापूर्वक धारण करना, इनके मद पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना और इनका जीवन भर पालन करना आराधना कहलाती है।

आर्जव-धर्म – १ कुटिल भाव को छोड़कर सरल हृदय से आचरण करना आर्जव-धर्म कहलाता है। २ मन, वचन और काय की ऋजुता अर्थात्‌सरलता का नाम आर्जव है।आर्तध्यान – इष्ट वियोग आदि के निमित्त से निरंतर पीड़ा या दुःख रुप परिणाम होना आर्तध्यान है। यह चार प्रकार का है- इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदना और निदान। के जिस परिणाम या भाव से सूक्ष्म पुद्‍गल परमाणु कर्म रुप होकर आत्मा में आते है उस परिणाम या भाव को भावास्रव कहते है और सूक्ष्म कर्म रुप पुद्‌गलो का आना द्रव्यास्रव और ईर्यापथ आस्रव ऐसे दो भेद भी आस्रव के हैं ।

आस्रव-अनुप्रेक्षा – आत्मा में निरंतर होने वाला कर्मों का आस्रव संसार को बढ़ाने वाला और दुःख रुप है तथा इन्द्रिय, कषाय और असंयम रुप होने से अहितकर है। इस प्रकार आस्रव के दोषों का बार-बार चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।

आहार-दान – श्रद्धा-भक्ति पूर्वक प्रासुक अन्न आदि आहार सुपात्र को देना आहार-दान कहलाता है।

आहारक – जो जीव औदारिक आदि तीन शरीरों में से उदय को प्राप्त किसी एक शरीर के योग्य पुद्‌गलो का ग्रहण करता है वह आहारक कहलाता है।

आहारक-शरीर – छ्ठवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत साधु सूक्ष्म तत्व के विषय में जिज्ञासा होने पर जिस शरीर के द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर जिज्ञासा का समाधान करते हैं उसे आहारक-शरीर कहते हैं।

आहारक-समुद्‌घात – सूक्ष्म तत्व के विषय में जिसे कुछ जिज्ञासा उत्पन्न हुई है उन परम ऋषि के मस्तक में से मूल शरीर से संपर्क बनाए रखकर एक हाथ ऊँचा सफेद रंग का सर्वांग सुंदर पुतला निकलकर अतर्मुहूर्त में जहाँ कहीं भी केवली भगवान् को देखता है वहाँ जाकर उनके दर्शन मात्र से ऋषि की जिज्ञासा का समाधान पाकर पुनः अपने स्थान में लौट आता है इसे आहारक-समुद्‌घात कहते है।

आहार-संज्ञा – अन्नादि आहार ग्रहण करने की इच्छा होना आहार-संज्ञा है।

आह्वानन आमंत्रण। भावों की एकाग्रता के लिए पूजा के प्रारंभ में जिनेन्द्र भगवान् को हृद्‌य में आमंत्रित करते है, उसी के प्रतीक रुप पुष्पक्षेपण करना आह्वानन कहलाता है।

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