उत्तम क्षमा धर्म

श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में क्षमा धर्म के विषय में कहा है

उत्तम—खम मद्दउ अज्जउ सच्चउ, पुणु सउच्च संजमु सुतउ।
चाउ वि आिंकचणु भव—भय—वंचणु बंभचेरू धम्मु जि अखउ।।
उत्तम—खम तिल्लोयहँ सारी, उत्तम—खम जम्मोदहितारी।
उत्तम—खम रयण—त्तय—धारी, उत्तम—खाम दुग्गइ—दुह—हारी।।
उत्तम—खम गुण—गण—सहयारी, उत्तम खम मुणिविद—पयारी।
उत्तम—खम बुहयण—चन्तामणि, उत्तम—खम संपज्जइ थिर—मणि।।
उत्तम—खम महणिज्ज सयलजणि उत्तम—खम मिच्छत्त—तमो—मणि।
जिंह असमत्थहं दोसु खमिज्जइ जिंह असमत्थहंण उ रूसिज्जइ।।
जिंह आकोसण वयण सहिज्जइ,जहिं पर—दोसु ण जणि भासिज्जइ।
जिंह चेयणगुण चित्त धरिज्जइ, तिंह उत्तम—खम जिणें कहिज्जइ।।
घत्ता—इय उत्तम—खम—जुय णर—सुर—खग—णुय केवलणाणु लहेवि थिरू।
हुय सिद्ध णिरंजणु भव—दुह—भंजणु अगणिय—रिसि—पुंगव जि चिरू।।

अर्थ — उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आविंâचन्य और ब्रह्मचर्य ये दर्श—धर्म अक्षय—अविनाशी हैं और संसार के भय को दूर करने वाले हैं।

उत्तम क्षमा तीन लोक में सार है, उत्तम क्षमा जन्मरूपी समुद्र से पार करने वाली है, उत्तम क्षमा रत्नत्रय को प्राप्त कराने वाली है और उत्तम क्षमा दुर्गति के दु:खों का हरण करने वाली है।

उत्तम क्षमा सर्व गुण—समूह की सहचारिणी है, उत्तम क्षमा मुनियों को अतीव प्रिय है, उत्तम क्षमा बुद्धिमानों के लिये िंचतामणि के स

मान है और यह उत्तम क्षमा मन को स्थिर करने पर ही प्राप्त होती है।

उत्तम क्षमा सभी जनों के द्वारा पूज्य है, उत्तम क्षमा मिथ्यात्वरूपी अंधकार को नष्ट करने में मणि अथवा सूर्य के समान है, जहाँ पर असमर्थ लोगों के दोष क्षमा किये जाते हैं, जहाँ पर असमर्थ व्यक्तियों पर रोष नहीं किया जाता है।

जहाँ आक्रोश—गाली आदि के कठोर वचन सहन किये जाते हैं, जहाँ दूसरों के दोष अन्य लोगों के सामने नहीं कहे जाते हैं और जहाँ चेतन आत्मा के गुण चित्त में धारण किये जाते हैं वहीं पर उत्तम क्षमा होती है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है।

इस प्रकार उत्तम क्षमा से युक्त मनुष्य, देव और विद्याधरों से नमस्कृत ऐसे अगणित उत्तम ऋषियों ने अविनश्वर केवलज्ञान को प्राप्त कर भव दु:ख भंजन, निरंजन ऐसे सिद्ध पद को प्राप्त कर लिया है।

तुंकारी की क्षमा

‘‘मणिवत’’ नाम के एक महामुनि अनेक देशों में विहार करते हुये किसी समय उज्जैन के बाहर श्मशान में ठहर गये। रात्रि के समय मृतक शय्या द्वारा ध्यान कर रहे थे। इतने में वहाँ एक कापालिक वैताली विद्या सिद्ध करने के लिये आया। उसे चूल्हा बनाने के लिये तीन मुर्दे चाहिये थे। अत: वह कुछ दूर पड़े हुये दो मुर्दों को घसीट लाया और इन महामुनि को भी मुर्दा समझ कर उसने तीनों के सिर का चूल्हा बना दिया। उस चूल्हे पर उसने नर कपाल रखा और आग जलाकर कुछ नैवेद्य पकाने लगा। थोड़ी देर बाद जब आग जोर से जलने लगी तब जीवित मुनिराज के सिर की नसें जलने लगीं और तीव्र वेदना से उनका हाथ ऊपर की ओर उठ गया जिससे सिर पर रखा कपाल गिर गया और आग भी बुझ गई। इधर इस घटना से कापालिक ने भूत आया समझा और वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

मुनिराज मेरु के समान अचल पड़े—पड़े आत्मतत्त्व का चितवन कर रहे थे। प्रात: होते ही आते—जाते किसी ने मुनिराज की यह दशा देखी तो झट दौड़कर मुनिभक्त सेठ जिनदत्त को सारा हाल सुना दिया। जिनदत्त सेठ उसी समय दौड़े आये, मुनिराज के इस उपसर्ग को देखकर बहुत ही दु:खी हुये। तत्क्षण ही उन्हें अपने घर ले आये और वैद्य को बुलाकर इलाज के लिए पूछा। वैद्य ने कहा—

‘‘हे सेठ ! सोमशर्मा भट्ट के यहाँ -लक्षपाक’ नाम का बहुत ही बढ़िया तेल है उसे लाकर लगाओ, उससे बहुत ही जल्दी आराम हो जायेगा। इतने अधिक जले का इसके अतिरिक्त और कोई इलाज नहीं है।’’

सेठ जिनदत्त उसी क्षण सोमशर्मा के घर पहुँचे। सोमशर्मा ब्राह्मण तो कहीं बाहर गया था अत: उनकी पत्नी से सेठ जी ने तेल देने की प्रार्थना की। उस ब्राह्मणी ने ऊपर एक कमरे में ले जाकर कहा—

‘‘सेठ जी! यह अनेक घड़े तेल से भरे हुये रखे हैं इनमें से एक घड़ा तेल ले जाओ।’’

जिनदत्त ने एक घड़ा उठाकर सिर पर रखा और सीढ़ियों से उतरने लगा किन्तु अकस्मात् उनके हाथ से घड़ा गिर गया और पूâट गया। जिनदत्त को बहुत ही डर लगा, अब क्या होगा ? पुन: डरते—डरते उसने ब्राह्मणी से घड़ा फूटने की बात कही, तब ब्राह्मणी ने कहा— ‘‘कोई बात नहीं, जाओ दूसरा घड़ा ले जाओ।’’

सेठ के हाथ से पुन: दूसरा घड़ा भी फूट गया, बेचारे बहुत घबड़ाये फिर भी ब्राह्मणी ने शान्ति से कहा—

‘‘जावो, तीसरा घड़ा ले आवो।’’

तीसरा घड़ा भी गिर कर फूट गया तब तो बेचारे सेठ जी थर—थर काँपने लगे। किन्तु ब्राह्मणी ने कहा—

‘‘सेठ जी! चिन्ता की कोई बात हीं है तुमने जानकर तो घड़े फोड़े नहीं हैं, शांति रखो चौथा घड़ा ले जावो, देखों तुम्हें जितने भी तेल की जरूरत हो ले जाना, डरना नहीं।’’

अब बेचारे सेठ जी बहुत ही संभल कर चले और चौथा घड़ा तेल का लेकर अपने घर आ गये। मुनिराज के जले घावों पर लगाया तब उन्हें कुछ शान्ति हुई। किन्तु वे मन में सोचने लगे—

‘‘अहो ! कोई भी महिला हो या पुरुष, उसका इतना बड़ा नुकसान हो जाने पर उसे गुस्सा आये बगैर नहीं रह सकता। उस ब्राह्मणी में भला इतनी शान्ति, इतनी क्षमा कहाँ से आ गई ?’’

सेठ जी पुन: सोमशर्मा के घर आये और ब्राह्मणी से पूछा—

‘‘हे माँ ! मेरे द्वारा इतना बड़ा अपराध होने पर भी तुम्हें क्रोध नहीं आया?’’

ब्राह्मणी ने कहा—

‘‘सेठ जी ! क्रोध का फल जैसा चाहिये वैसा मैं भोग चुकी हूँ इसलिए क्रोध के नाम से ही मेरा जी काँप उठता है।’’

पुन: सेठ की जिज्ञासा होने पर उसने कहना शुरू किया—

‘‘सेठ जी सुनिये ! चंदनपुर में एक शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है। वह बहुत ही धनवान है और राजा का आदर पात्र हैं उसकी भार्या का नाम कमलश्री है। उनके आठ पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्री का नाम भट्टा रखा सो मैं ही हूँ। मैं बहुत सुन्दर थी पर मुझ में एक यह अवगुण था कि मैं अत्यन्त घमन्डी थी और बोलने में बहुत तेज थी इसलिए सभी लोग मुझ से डरते थे और किसी को मुझे ‘‘तू’’ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। यदि कदाचित् कोई मुझे ‘‘तू’’ कह कर पुकार दे तो मैं लड़—झगड़ कर उसकी सौ पीढ़ियों तक गालियाँ दे डालती, जिससे भयंकर तूफान खड़ा हो जाता। उससे विपरीत मेरे पिताजी लड़ाई—झगड़े से बहुत डरते थे तथा राजा के द्वारा बहुत सम्मान मिलते रहने से वे निर्भीक भी थे। अत: एक बार उन्होंने शहर में यह ढढोरा पिटवा दिया कि—

‘‘कोई भी मेरी बेटी को ‘‘तू’’ कहकर न पुकारे।’’

पिताजी ने जो अच्छा ही किया था किन्तु मेरे दुर्भाग्य से वह उल्टा हो गया। उस दिन से मेरा नाम ही ‘‘तुंकारी’’ पड़ गया और सभी लोग मुझे इस नाम से चिढ़ाने लगे। मैं चिढ़ती, लड़ती—झगड़ती और लोगों को गालियाँ देने लगती थी। युवावस्था में आने पर नतीजा यह निकला कि मेरे से कोई भी विवाह करने को तैयार नहीं हुआ। बहुत दिन बाद मेरे भाग्य से इन सोमशर्मा ब्राह्मण ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि—

‘‘इन्हें ‘‘तू’’ कहकर नहीं पुकारूँगा।’’

तब पिताजी की चिन्ता मिटी और मेरा विवाह सम्पन्न हो गया, मैं यहाँ अपने ससुराल आ गई। मैं इस घर में बहुत दिनों तक सुखपूर्वक रही। एक दिन की घटना है मेरे पतिदेव रात्रि में नाटक देखते रहे और बहुत देर से आये। दरवाजा खोलो—खोलो, पुकारने लगे। उस समय मुझे बहुत ही गुस्सा आ रहा था इसलिए दरवाजा खोलने नहीं उठी। पतिदेव भी जब दरवाजा खटखटाते और पुकारते—पुकारते थक गये तब उन्हें बहुत गुस्सा आया और बोले—

‘‘अरे ‘तू’ सुनती नहीं है। मैं इतनी देर से बाहर खड़ा चिल्ला रहा हूँ।’’ बस पति के मुख से ‘‘तू’’ निकलते ही मैं आपे से बाहर हो गई। बड़ों की सूक्ति ठीक ही है कि—‘‘पड़ा स्वभाव न जाये कभी जीव से। करेलो मीठो न होय सींचों गुड़—घी से।’’ उस समय मैं क्रोध से अंधी हो गई और दरवाजा खोलकर घर के बाहर भाग निकलीं, उस क्षण मुझे कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रही हॅूँ। मैं दौड़ते हुये शहर के बाहर जंगल की ओर निकल गई। इसी बीच जंगल में चोरों ने मुझे देख लिया। उन्होंने मेरे सब कीमती गहने—जेवर उतार लिये और विजयसेन भील को सौंप दिया। उस भील ने मुझे सुन्दर देखकर मेरा शील भंग करना चाहा किन्तु मेरी दृढ़ता के प्रभाव से किसी दिव्यस्त्री ने आकर मेरे शील की रक्षा की। तब उस भील ने डरकर मुझे एक सेठ को सौंप दिया। सेठ ने भी मेरा शील भंग करना चाहा पर उस समय भी दैवी शक्ति ने मेरी रक्षा की। तत्पश्चात् उस सेठ ने मुझे एक रंगरेज मनुष्य के हाथ सौंप दिया। यह रंगरेज नित्य ही जीवों के खून से रंगकर वंâबल तैयार करता था। वह दुष्ट मनुष्य मेरे शरीर पर बहुत सी जौंके लगा—लगाकर मेरा रोज—रोज बहुत सा खून निकाल लेता था और फिर उसमें कंबल रंगा करता था। इस दु:ख को भोगते हुये मेरे कितने ही दिन निकल गये थे।

एक दिन मेरा भाई इधर से निकला कि अचानक मैंने उसे देख लिया और जोर से बुलाया किन्तु वह मेरी इस दुर्दशा में जल्दी पहचान भी न सका जब उसने मेरे मुख से सारा हाल सुना तब वह रो पड़ा। पुन: उसने मुझे धैर्य बँधाया और उसी क्षण उसने राजा के पास जाकर मेरा परिचय बताकर उस पापी रंगरेज से मेरा उद्धार किया। वहाँ से लाकर मेरे भाई ने पुन: मेरे पतिदेव को समझा—बुझाकर यहाँ पहुँचा दिया। इस समय मेरे शरीर का प्राय: सारा खून निकल चुका था इसलिए मुझे लकवे की बीमारी हो गई। तब वैद्य ने यह लक्षपाक तेल बनाकर मुझे बचाया है।

इसके बाद मैंने एक वीतरागी निर्ग्रंथ मुनि के मुख से धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया है और साथ ही यह प्रतिज्ञा भी कर ली है कि अब मैं किसी पर भी क्रोध नहीं करूँगी। अत: अब मैं बहुत ही शान्त रहती हूँ जिससे मुझे स्वयं बहुत ही सुख का अनुभव होता है। मैं मन में किसी के प्रति क्रोध भाव नहीं लाती हूँ जिससे मेरे मस्तिष्क में बहुत शान्ति रहती है।

सेठ जिनदत्त इस सच्ची घटना को सुनकर बहुत प्रभावित हुये और उस ब्राह्मणी की बहुत—बहुत प्रशंसा करते हुये अपने घर आकर मुनिराज की परिचर्या में लग गये।

सचमुच में, क्रोध का फल इस भव में तो बुरा है ही, परभव में भी बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण कराने वाला है।

रामचन्द्र की क्षमा

जब रामचन्द्र जी वन में विचरण कर रहे थे अरुण ग्राम में कपिल ब्राह्मण के यहाँ पहुँचे, सीता प्यास से व्याकुल थी। कपिल की पत्नी ने पानी पिलाया उसी समय कपिल आकर गाली बकने लगा। लक्ष्मण को गुस्सा आया उन्होंने उसे उठाकर उल्टा कर दिया और जमीन में पटकना चाहा तब श्री रामचन्द्र ने कहा वत्स! इसे क्षमा कर दो। कुछ दिन बाद वह ब्राह्मण रामपुरी नगरी में राम के दर्शन करने गया। उन्हें पहचान कर डर कर भागने लगा तब श्रीराम ने उसे बुलाकर सम्मान करके खूब मालामाल कर दिया।

शरणागत शत्रु भी हो वह भी क्षमा के योग्य है। महाभारत में बताया है कि युद्ध के समय जो कौरव—पांडवों में शर्तें हुई थीं उसमें एक यह थी कि सूर्यास्त के समय युद्ध बंद हो जाये और एक यह थी कि युद्ध बंद होने के बाद दोनों पक्ष के लोग आपस में मिलें। आपस में पहले राजा लोग युद्ध भूमि में लड़ते थे और अनन्तर एक दूसरे से सौहार्द स्थापित करते थे। यह यमराज कभी भी आकर आपको अपना ग्रास बना सकता है। इसलिये क्षमा धर्म के लिये आजकल की प्रतीक्षा न करो जिससे आपकी कषाय हो उसे प्रेमभाव से क्षमा कर दो और करालो—यही इस धर्म को सुनने का सार है। क्षमा में बहुत ही निराकुलता और आत्म शांति रहती है।

क्रोध से संचित हुई शक्ति आत्मा को जला देती है जैसे कि आतिशी शीशा से छनकर सूर्य की किरणें केन्द्रित होकर वस्त्र में आग लगा देती हैं तथा क्षमारूप शक्ति आध्यात्मिक ऋद्धियों को, आत्मिक तेज को प्रगट करती है। अत: जो तुम्हें अच्छा लगे उसी को अपनाओ। शास्त्रों के स्वाध्याय और महामंत्र के स्मरण के बल से क्रोध को सहज ही जीता जा सकता है। आज जो भाई—भाई में कलह, बाप—बेटे में कलह, माँ—बेटी में बैर, पति—पत्नी में अलगाव दिखते हैं, वे सब असहनशीलता के ही परिणाम हैं। यदि आपस में छोटी—छोटी बातों को सहन करना सीख लें और आपस में क्षमा भाव धारण करना सीख लें तो परस्पर में स्नेह का पूरा प्रवाह सदैव बहता रहे और सबका हृदय आनन्द रस से प्लावित रहे। इसलिये छोटी—छोटी बातों में क्रोध करने की आदत छोड़कर प्रेम का वातावरण र्नििमत करके समाज, देश और घर में शान्ति की स्थापना करनी चाहिए। आज के इस संघर्षमयी राष्ट्र में सहनशीलता की, क्षमा की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इस धर्म के बल से ही देश में सुख—शांति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।

जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नम:।