रत्नत्रय धर्म

सम्यग्दर्शन

अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढ़ता रहित, आठ अंग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग आदि गुण वाला होता है। सर्वप्रथम यहां पर आप्त, आगम और पदार्थों का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है।

सच्चे आप्त  जो सर्वज्ञ है, समस्त लोकों का स्वामी है, सब दोषों से रहित है और सब जीवों का हितू है उसे आप्त कहते हैं। चूंकि यदि अल्पज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो लोगों को उससे ठगाये जाने की शंका बनी रहती है इसलिए आत्मार्थी पुरुष उपदेश के लिए ज्ञानी मनुष्य की ही खोज करते हैं। श्रीसमंतभद्र स्वामी ने भी कहा है कि- ‘जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं वे ही आप्त कहलाते हैं।’

जो तत्त्वों का उपदेश देकर दु:खरूपी समुद्र से जगत के जीवों का उद्धार करते हैं, कृतज्ञतावश तीनों लोकों के जीव उन्हीं के चरणों मे नत हो जाते हैं अत: वे ही सर्वलोक के स्वामी, परमात्मा, सच्चे देव कहलाते हैं। भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। जो इन दोषों से सर्वथा रहित हो चुके हैं वे आप्त हैं। उनके नेत्र केवलज्ञानी हैं उस केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा वे सर्व चराचर विश्व को जानते हैं तथा वे ही सदुपदेश के दाता होते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, सत्य कहते हैं क्योंकि राग से, द्वेष से या मोह से झूठ बोला जाता है किन्तु जिनमें ये तीनों दोष नहीं हैं उनके झूठ बोलने का कोई कारण भी नहीं है। जिनकी आत्मा में, श्रुति में, तत्त्व में और मुक्ति के कारणभूत चारित्र में एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात् जो जैसा कहते हैं वैसा ही स्वयं आचरण करते हैं और वैसी ही तत्त्व व्यवस्था भी उपलब्ध होती है, उन्हें ही सज्जन पुरुष आप्त मानते हैं। यद्यपि ऐसे आप्त सच्चे देव आज आँखों से नहीं दिखते हैं फिर भी उन अतीन्द्रिय सर्वज्ञ की विशेषता उनके द्वारा उपदिष्ट आगम से जानी जाती है। जैसे-बगीचे में रहने वाले पक्षियों की आवाज से उनकी विशिष्टता का भान हो जाता है अर्थात् पक्षियों के बिना देखे भी जैसे उनकी आवाज से उनकी पहचान हो जाती है वैसे ही आप्त पुरुषों को बिना देखे भी उनके शास्त्रों से उनकी आप्तता का पता चल जाता है। ऊपर कहे हुए अठारह दोषों में से एक भी दोष जिनमें विद्यमान है और जो सर्वज्ञ नहीं बन पाये हैं उन्हें सच्चे आप्त नहीं कहना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान

जो वस्तुओं को जैसा का तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है। जैसे जन्म से अन्धे मनुष्य को लाठी ऊँची-नीची जगह को बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहित का विवेचन करके धर्मात्मा पुरुष को हितकारक कार्यों में लगाता है और अहित करने वाले कार्यों से रोकता है। मतिज्ञान तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को ही जानता है किन्तु शास्त्रज्ञान इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान कराता है अत: यदि ज्ञाता का मन ईष्र्या, द्वेष आदि दुर्भावों से रहित है तो उसे तत्त्व का ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है। यदि तत्त्वों के जान लेने पर भी मनुष्य की बुद्धि अन्धकार में रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्य का ज्ञान भी व्यर्थ है। सामान्य से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य चारों ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद होते हैं।

सम्यक्चारित्र

अशुभ कार्यों से बचना और अच्छे कार्यों में लगना चारित्र है। वह चारित्र गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। गृहस्थों का चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियों का चारित्र सकलचारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सद्विचारों से युक्त हैं वे ही चारित्र का पालन कर सकते हैं। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्ष किसी को भी प्राप्त करने की योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र ही पाल सकता है और न सकलचारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है उसका शास्त्रवाचन मुख की खाज मिटाने का एक साधन मात्र है और जो मनुष्य ज्ञान से रहित है उसका चारित्र धारण करना अभागे मनुष्य के आभूषण धारण करने के समान है। सम्यग्दर्शन से अच्छी गति मिलती है, सम्यग्ज्ञान से संसार में यश फैलता है और सम्यक्चारित्र से पूजा प्राप्त होती है तथा इन तीनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है[३]। चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन रसौषधि है। इन सबके मिलने पर आत्मारूपी पारद धातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है, सम्यग्ज्ञान का आश्रय अभ्यास है, सम्यक्चारित्र का आश्रय शरीर है और दान आदि क्रियाओं का आश्रय धन है। जैसे-चूने की पुताई से मकान, पौरुष करने से दैव, पराक्रम से नीति और विशेषज्ञता से सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्न को चमका देता है। गृहस्थों के व्रत मूलगुण और उत्तरगुण के भेद से दो प्रकार के होते हैं। आगम में पांच उदुंबर (बड़, पीपर, पाकर, ऊमर और कठूमर) मद्य, मांस और मधु का त्याग ये आठ मूलगुण गृहस्थों के बतलाए हैं।