नव पदार्थ

श्री गौतमस्वामी विरचित पाक्षिक प्रतिक्रमण में—

‘से अभिमद जीवाजीव-उवलद्धपुण्णपाव-आसवसंवरणिज्जर-बंधमोक्खमहिकुसले।।।’’[१]

  1. जीव
  2. अजीव
  3. पुण्य
  4. पाप
  5. आस्रव
  6. संवर
  7. निर्जरा
  8. बंध
  9. मोक्ष।

ये क्रम है। यही क्रम षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक १३ में है।

‘‘जीवाजीव- पुण्ण-पाव-आसव-संवर-णिज्जरा-बंध-मोक्खेहि।
णवहिं पयत्थेहि वदिरित्तमण्णं ण किं पि अत्थि, अणुवलंभादो।।
अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि इनके सिवा अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। यही क्रम समयसार ग्रन्थ में है—

(१५ ज.) भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१३ अ.।।
अर्थ — भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही सम्यक्त्व हैं। समयसार ग्रन्थ में इसी क्रम से अधिकार दिये गये हैं। यही क्रम गोम्मटसार जीवकांड में गाथा ६२१ में दिया गया है। देखिए—

णव य पदत्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपावदुगं।
आसवसंवरणिज्जर बंधा मोक्खो य होंति त्ति।।६२१।।
अर्थ — जीव, अजीव, उनके पुण्य और पाप दो तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं। पदार्थ शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए, जैसे जीव पदार्थ, अजीवपदार्थ इत्यादि।।६२१।।

पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी ९ पदार्थ का क्रम इसी प्रकार है-

जीवा-जीवा भावा पुण्णं पावं च आसंव तेसिं।
संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा।।१०८।। 

गाथार्थ — जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इस प्रकार नव पदार्थों के नाम हैं। भावसंग्रह में आचार्य श्री देवसेन जी ने भी ९ पदार्थ का यही क्रम रखा है—

ते पुण जीवाजीवा—पुण्णं पावो य आसवो य तहा।
संवर णिज्जरणं पि य बंधो मोक्खो य णव होंति।।२८५।। 

आगे श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा क्रम रखा है। यथा—

‘‘जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।४।।

सूत्रार्थ — जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। किन्हीं विद्वान ने पाक्षिक प्रतिक्रमण में श्री गौतमस्वामी की रचना में पाठ बदलकर ऐसा कर दिया है—

‘‘से अभिमदजीवाजीव-उवलद्धपुण्णपाव-आसवबंधसंवरणिज्जरमोक्खमहिकुसले।’’

अर्थात् आस्रव के बाद तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार बंध को ले लिया है। किन्तु ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिक्रमण की टीका में व समयसार आदि में मूलपाठ का ही क्रम रखा है। क्या कोई समयसार में अधिकारों के भी क्रम में परिवर्तन कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं। समयसार में-श्री अमृतचंद्रसूरि व श्री जयसेनाचार्य ने भी इसी क्रम से अधिकारों की टीका की है, पहले जीवाजीवाधिकार, पुण्यपापाधिकार पुनः आस्रव, पुनः संवर, निर्जरा पुनः बंध और मोक्ष अधिकार लिये हैं।

तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अनुसार ही उनके टीकाकार आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी, आ. श्री अकलंकदेव, आचार्य श्री विद्यानंद महोदय, श्री श्रुतसागरसूरि आदि ने उसी क्रम से टीका, भाष्य आदि लिखे हैं।

द्रव्यसंग्रह में भी यही क्रम है उसमें पुण्य-पाप को अंत में ले लिया है। कहने का अभिप्राय यहाँ यही है कि इन किन्हीं की भी रचना में पाठ बदलने का अतिसाहस हमें व आपको नहीं करना चाहिये।