lavan samudra

लवण समुद्र–Lavan Samudra

लवण समुद्र

जम्बूद्वीप को घेरे हुए २ लाख योजन व्यासवाला लवणसमुद्र है। उसका पानी अनाज के ढेर के समान शिखाऊ ऊँचा उठा हुआ है। बीच में गहराई १००० योजन की है। समतल से जल की ऊँचाई अमावस्या के दिन ११००० योजन की रहती है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बढ़ते-बढ़ते ऊँचाई पूर्णिमा के दिन १६००० योजन की हो जाती है पुन: कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से घटते-घटते ऊँचाई क्रमश: अमावस्या के दिन ११००० योजन की रह जाती है।

धातकीखण्ड-यह द्वीप लवण समुद्र को घेरकर चार लाख योजन व्यास वाला है। इसके अन्दर पूर्व दिशा में बीचों-बीच में विजय मेरु और पश्चिम दिशा में बीच में ‘अचल’ नाम का मेरु पर्वत स्थित है। दक्षिण और उत्तर में दोनों तरफ समुद्र को स्पर्श करते हुए दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिससे इस द्वीप के पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो जाते हैं। वहाँ पर भी पूर्व धातकी खण्ड में हिमवान् आदि छह पर्वत, भरत आदि सात क्षेत्र, गंगादि चौदह प्रमुख नदियाँ बहती हैं तथैव पश्चिम धातकीखण्ड में यही सब व्यवस्था है। धातकी खण्ड को वेष्टित करके कालोदधि समुद्र है।

पुष्करार्ध द्वीप-कालोदधि को वेष्टित करके १६ लाख योजन वाला पुष्कर द्वीप है। इसके बीचों-बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत स्थित है। इस पर्वत के इधर के भाग में कर्मभूमि जैसी व्यवस्था है। इसमें भी दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वत है और पूर्व पुष्करार्ध में ‘मन्दर’ मेरु तथा पश्चिम पुष्करार्ध में ‘विद्युन्माली’ मेरु पर्वत स्थित हैं। इसमें भी दोनों तरफ भरत आदि क्षेत्र, हिमवान् आदि पर्वत पूर्ववत् हैं।

१७० कर्मभूमि-जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। इसके दक्षिण में निषध एवं उत्तर में नील पर्वत है। यह मेरु विदेह के ठीक बीच में है। निषध पर्वत से सीतोदा और नील पर्वत से सीता नदी निकलकर सीता नदी पूर्व समुद्र में, सीतोदा नदी पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। इसलिए इनसे विदेह के ४ भाग हो गये। दो भाग मेरु के पूर्व की ओर और दो भाग मेरु के पश्चिम की ओर। एक-एक विदेह में ४-४ वक्षार पर्वत और ३-३ विभंगा नदियाँ होने से १-१ विदेह के ८-८ भाग हो गये हैं। इन चार विदेहों के बत्तीस भाग-विदेह हो गये हैं। ये ३२ विदेह एक मेरु संबंधी हैं। इसी प्रकार ढाई द्वीप के ५ मेरु संबंधी ३२²५·१६० विदेह क्षेत्र हो जाते हैं।

इस प्रकार १६० विदेह क्षेत्रों में १-१ विजयार्ध एवं गंगा-सिंधु तथा रक्ता-रक्तोदा नाम की दो-दो नदियों से ६-६ खण्ड होते हैं। जिसमें मध्य का आर्यखण्ड और शेष पाँचों म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं। ऐसे पाँच मेरु संबंधी ५ भरत, ५ ऐरावत और ५ महाविदेहों के १६० विदेह ५±५±१६०·१७० क्षेत्र हो गये। ये १७० ही कर्मभूमियाँ हैं।

एक राजु विस्तृत इस मध्यलोक में असंख्यातों द्वीप समुद्र हैं। उनके अन्तर्गत ढाई द्वीप की १७० कर्मभूमियों में ही मनुष्य तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए ये क्षेत्र कर्मभूमि कहलाते हैं।

३० भोगभूमि-हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य, हरि, रम्यक क्षेत्र में मध्यम और देवकुरु-उत्तरकुरु में उत्तम ऐसी छह भोगभूमि जम्बूद्वीप में हैं। धातकी खण्ड की १२ तथा पुष्करार्ध की १२ ऐेसे ६±१२±१२·३० भोगभूमि ढाई द्वीप संबंधी हैं।

९६ कुभोगभूमि-इस लवण समुद्र के दोनों तटों पर २४ अन्तद्र्वीप हैं अर्थात् चार दिशाओं के ४ द्वीप, ४ विदिशाओं के ४ द्वीप, दिशा-विदिशा के आठ अन्तरालों के ८ द्वीप, हिमवान् पर्वत और शिखरी पर्वत के दोनों तटों के ४ और भरत, ऐरावत के दोनों विजयार्धों के दोनों तटों के ४ इस तरह ४±४±८±४±४·२४ हुए।

ये २४ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र के इस तटवर्ती हैं। उस तट के भी २४ तथा कालोदधि के उभय तट के ४८, सभी मिलकर ९६ अन्तद्र्वीप कहलाते हैं। इनमें रहने वाले मनुष्यों के सींग, पूँछ आदि होते हैं अत: इन्हें ही कुभोगभूमि कहते हैं। इन द्वीपों के मनुष्य कुभोगभूमियाँ कहलाते हैं। इनकी आयु असंख्यात वर्षों की होती है।

कुमानुष-पूर्व दिशा में रहने वाले मनुष्य एक पैर वाले होते हैं। पश्चिम दिशा के पूँछ वाले, दक्षिण दिशा के सींग वाले एवं उत्तर दिशा के गूँगे होते हैं। विदिशा आदि संबंधी सभी कुभोगभूमियाँ कुत्सित रूप वाले होते हैं। ये मनुष्य युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरते हैं। इनको शरीर संबंधी कोई कष्ट नहीं होता है। कोई-कोई वहाँ की मधुर मिट्टी का भक्षण करते हैं तथा अन्य मनुष्य वहाँ के वृक्षों के फलफूल आदि का भक्षण करते हैं। उनका कुरूप होना कुपात्रदान आदि का फल है।

स्वयंभूरमण पर्वत-अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार स्वयंभूरमण नाम का पर्वत है जो कि मानुषोत्तर के समान द्वीप के दो भाग कर देता है।

मानुषोत्तर पर्वत से आगे असंख्यातों द्वीपों में स्वयंभूरमण पर्वत के इधर-उधर तक जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। इन सभी में असंख्यातों तिर्यञ्च युगल रहते हैं।

स्वयंभूरमण पर्वत के उधर आधे द्वीप में और स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि की व्यवस्था है अर्थात् यहाँ के तिर्यंच कर्मभूमि के तिर्यञ्च हैं। वहाँ प्रथम गुणस्थान से पंचम गुणस्थान तक हो सकता है। देवों द्वारा सम्बोधन पाकर या जातिस्मरण आदि से असंख्यातों तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि देशव्रती बनकर स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं।

लवण समुद्र

लवण समुद्र जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है। इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रापृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पचानवें हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों ओर से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है।१

समभूमि से आकाश में इसकी जल शिखा है यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊँची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊँची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १९०००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११-७/८ योजन प्रमाण है।

गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है। अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये।

अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है। अत: ५००० के १५वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है।

१६०००-११०००/१५ · ५०००/१५,५०००/१५ · ३३३-१/३ योजन तीन सौ तैंतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।

समुद्र के मध्य में पाताल

लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में चार हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं।

चार उत्कृष्ट पाताल

उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, बड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १०००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊँचाई और मध्य विस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन/घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है, उनके मूल के त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल और वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहती है। पातालों के अन्त में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं।१ ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है। यथा—‘‘रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भागसन्निवेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीड़ाजनिता-निलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलननिमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजनसहस्रविस्तारमुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:।

अर्थ—रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भगा १०००००/३ · ३३३३३ १/३ योजन प्रमाण है।

ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं। अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार जैसे गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि एक लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे कैसे होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यंत ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे गहरे हैं।

चार मध्यम पाताल

विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं। उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई-गहराई में १०००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल और वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊँचाई १०००० योजन है १००००/३ · ३३३३ १/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीन सौ तैंतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२ २/९ योजन प्रमाण है।

१००० जघन्य पाताल

उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। इनके विस्तार आदि का प्रमाण मध्यम पातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० हजार योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जल तथा वायु दोनों होते हैं। इनका त्रिभाग ३३३, १/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२ २/९ योजन मात्र है।

नागकुमार देवों के १,४२००० नगर

लवण समुद्र के बाह्य भाग में ७२००० हजार, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के २८००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्य भाग की रक्षा करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं।

ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिविर से ७०० १/२ योजन जाकर आकाश तल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तट वेदियाँ हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित बेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं। जिन मंदिरों से रमणीय, वापी-उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है। ये नगरियाँ अनादिनिधन हैं।

उत्कृष्ट पाताल के आसपास के ८ पर्वत

समुद्र के दोनों किनारों में ब्यालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘‘पाताल’’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत रजतमय, धवल, १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वङ्कामय मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है। इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार ११६०००, जगती से पर्वत का अंतराल ४२००० ± ४२००० · ८४०००। ११६००० ± ८४००० · २०००००।

ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं। इनके ऊपर उन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ-कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजयदेव के समान हैं। कदंब पाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभदेव के समान है।

बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक और उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत है। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं।

आठ सूर्य द्वीप हैं

जम्बूद्वीप की जगती से ब्यालीस हजार योजन जाकर ‘‘सूर्यद्वीप’’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं।१ ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पाश्र्व भागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘‘चंद्रद्वीप’’ भी माने गये हैं। यथा—अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्वभागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तर-दिशायें हैं उनके दोनों पाश्र्वभागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘‘चंद्रद्वीप’’ नामक द्वीप हैं।२ ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहाँ द्वीप से ‘‘टापू’’ को समझना।

समुद्र में गौतम द्वीप का वर्णन

लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊँचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘‘वायव्य’’ विदिशा में है। ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन, वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘‘जिनमंदिर’’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं।

मागध द्वीप आदि का वर्णन

भरत क्षेत्र के पास समुद्र के तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं। अर्थात् गंगा नदी के तोरणद्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘‘मागध’’ द्वीप है। जम्बूद्वीप के दक्षिण वैजयन्त द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर वर्तन द्वीप है एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है।३ इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश करते हैं।

ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तोदा नदी के पाश्र्व भाग में समुद्र के अन्दर ‘‘मागध’’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘‘वरतनु’’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते हैं।

४८ कुमानुष द्वीप

लवण समुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तरभाग में एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५०० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जम्बूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवान् एवं विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६०० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों से ६०० योजन अन्तर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं।

दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं। ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तर दिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पाश्र्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं।

ये सब उत्तम द्वीप वनखण्ड, तालाबों से रमणीय, फलों के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहाँ कुभोग भूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘‘कुमानुष’’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूँगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्ण प्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बन्दर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों पर क्रम से मेघमुख, विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के किनारों पर आदर्श मुख, हस्तिमुख कुमानुष होते हैं। इन सबमें से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में रहते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं। शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल-फूलों से जीवन व्यतीत करते हैं।

इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८। कुल ४ ± ४ ± ८ ± ८ · २४ अन्तद्र्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी २४ द्वीप मिलकर २४ ± २४ · ४८ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र में हैं।