गुणस्थान

गुणस्थान

अध्यात्म विकास के आयाम गुणस्थान और परिणाम

गुणस्थान एवं ध्यान

गुणस्थान का संबंध गुण से है सहभुवो गुणा[१] साथ में होने वाले गुण है या जिनके द्वारा एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य से पृथक् पहचान होती है वह गुण है। गुण्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं द्रव्याद्यैस्ते गुणा:।[२] अर्थात् जिसके द्वारा द्रव्य की पहचान होती है वह गुण है जो द्रव्य की संपूर्ण अवस्थाओं में पाये जाने वाले गुण है। अनेक मिली हुई वस्तुओं में किसी एक वस्तु को पृथक् करने वाले हेतु को लक्षण (गुण) कहते हैं।[३] शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, गुण, स्वभाव प्रकृति और शील ये शब्द एकार्थवाची हैं।[४] इस प्रकार गुण शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में भिन्नता है। ध्यान या परिणाम की अवस्था गुणस्थान है—जैसे—जैसे ध्यान में एकाग्रता के साथ विशुद्धि बढ़ती जाती है वैसे—वैसे गुणों के स्थान बढ़ते जाते हैं। अर्थात् आत्मा के उदयादि परिणामों की गुणात्मक अवस्था, दशा अथवा स्थान को गुणस्थान कहते हैं।[५] गुणस्थान से शून्य अथवा ध्यान से शून्य अवस्था कभी किसी जीव की नहीं होती वह किसी न किसी ध्यान के साथ गुणस्थान में रहता है— संसार में जीव मोहनीय कर्म के उदय उपशम आदि अवस्थाओं के अनुसार उत्पन्न हुये ध्यान रूप परिणामों, भावों या अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं।

जेहि दु लक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भावेहि। जीवा ते गुण—सण्णा णिद्दिट्ठा, सव्वदरिसीहि।।[६]

आचार्य देवसेन ने भाव संग्रह में औदयिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भावों के साथ शुभ—अशुभ शुद्ध भावों का योग निर्दिष्ट किया है। ये शुभ—अशुभ और शुद्ध भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम होने पर जिन अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं उन परिणामों की अवस्थायें ही चौदह गुणस्थान हैं। जो जीव कर्मों को नष्ट कर गुणास्थानातीत हो जाते हैं वे सिद्ध या मुक्त जीव हैं।[७]

१. मिथ्यात्व गुणस्थान

मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिन जीवों के औदायिक भावों का उदय होता है वे सभी जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में स्थित हैं, मिथ्यात्व कर्म के उदय से इन जीवों के परिणाम विपरीत हो जाते हैं पित्तज्वर के रोगी के समान अपने हित अहित को नहीं जान पाते। यह मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है। १. विपरीत मिथ्यात्व, २. एकांत मिथ्यात्व, ३. विनय मिथ्यात्व, ४. संशय मिथ्यात्व, ५. अज्ञान मिथ्यात्व[८]

मिथ्यात्व गुणस्थान में अशुभ ध्यान एवं उसका फल
मिथ्यात्व के उदय से यह जीव अनादि काल से चारों गतियों में अनेक शरीर धारण करता हुआ और विभिन्न प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ इस संसार में परिभ्रमण करता है यह जीव प्रबल मिथ्यात्व के कारण हमेशा आर्तऔर रौद्र ध्यान करता रहता है।[९] इन अशुभ ध्यानों के कारण यह जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है अनादि से अनंत काल तक परिभ्रमण समाप्त नहीं कर सकेगा। यह जीव धर्म के स्वरूप को न समझने के कारण नरक तिर्यंच गति को प्राप्त होंगे। यदि किसी प्रकार उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम आयु, आरोग्य शरीर आदि प्राप्त भी न होने से क्षुत्र मनुष्य होकर भी दु:खी रहता है। यदि किसी प्रकार उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम आयु, आरोग्य शरीर आदि प्राप्त भी कर लेता है तो भी आर्तरौद्र ध्यान के कारण एवं मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन करता हुआ सच्चे मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाता।[१०]

२. सासादन गुणस्थान और परिणाम

सम्यक्दर्शन के छूट जाने के बाद जब तक मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त नहीं होता है तब तक का काल सासादन गुणस्थान कहा जाता है। जिस प्रकार कोई पुरुष पर्वत से गिरता है परन्तु अभी पृथ्वी पर नहीं आया वह न तो पर्वत पर कहा जा सकता है और न पृथ्वी पर किन्तु मध्य में माना जाता है इसी प्रकार सम्यक्त्व से पतित जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त नहीं हुआ तब तक उसके सासादन गुणस्थान कहा जाता है। तत्त्वसार में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों में किसी एक के उदय होने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पतित हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, तब तक की मध्यवर्ती अवस्था सासादन गुणस्थान की कही है। गोम्मटसार में जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व एवं द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की स्थिति कम से कम एक समय, अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण शेष रहती है, तब तक जीव के अनन्तानुबंधी कषाय के चार भेदों में से किसी एक भेद का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने से आत्मा की अवस्था नीचे गिरती है, और जब तक मिथ्यात्व भूमि का स्पर्श नहीं करती तब तक वह अवस्था सासादन गुणस्थान की कही है। आसादन से तात्पर्य विराधना से है अर्थात् इस गुणस्थान में जीव सम्यक्त्व की विराधना करता है और ‘असन’ का अर्थ है नीचे गिरना अर्थात् यह जीव मिथ्यात्व भूमि की ओर नीचे गिरता है इसलिए इस गुणस्थान को सासादन कहा है। इस गुणस्थानवर्ती जीव प्रथम गुणस्थान से द्वितीय गुणस्थान में नहीं आते बल्कि चतुर्थ आदि गुणस्थान के कषायों के उदय के कारण जब कोई जीव नीचे गिरने लगता है तब इस गुणस्थान में आता है। इसलिए यह गुणस्थान उत्थान का नहीं बल्कि पतन का है। मिथ्यात्व भूमि के स्पर्श से पूर्व इसमें सम्यक्त्व का अल्पाभास सा होता है। जैसे सूर्य अस्त के उपरांत रात्रि का पूर्ण अन्धकार होने के पूर्व की अवस्था। इस गुणस्थान में जीव की अवस्था छह आवली मात्र है। इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के उदय, क्षय एवं क्षयोपशम का अभाव होने से केवल पारिणामिक१४ भाव ही होते हैं।

३. मिश्रगुणस्थान और परिणाम

जिस अवस्था में जीव के सम्यक् मिथ्यात्व रूप परिणाम होते हैं वह मिश्र गुणस्थान है। जिस प्रकार खच्चर जाति का गधा गधी से उत्पन्न न होकर घोड़ी से उत्पन्न होने वाली यह तीसरी जाति है। इस प्रकार इस मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के मिले हुये तीसरी जाति के परिणाम होते हैं। इस गुणस्थान में रहने वाले जीव देश संयम और सकल संयम धारण नहीं कर सकते। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव के आयु बन्ध का अभाव एवं मरण का अभाव होता है यह जीव या तो सम्यक्दर्शन धारण कर मर सकता है अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर मर सकता है। इस गुणस्थान में जीव के आर्तध्यान और रौद्रध्यान का ही चिन्तवन चलता है। सम्यक् मिथ्यात्व रूप परिणामों के कारण सम्यक््â एवं मिथ्या सभी देवों की आराधना करता है सभी धर्मों को समान मानता है गुण—अवगुण के भद का ज्ञान नहीं होता।

४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और परिणाम

जिसका श्रद्धान सम्यक् होने पर भी अभी पाँच पापों का एकदेश त्याग भी न होने से संयम रहित है वह अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान है। ‘‘णमो इंदिएसु विरदो जीवे थावर—तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।। अर्थात् जो जीव इन्द्रियों के विषयों से विरत न होने के साथ त्रस स्थावर जीवों की िंहसा से भी विरत नहीं हैं परन्तु जो जिनदेव कथित तत्त्वों पर श्रद्धान रखता है वह अविरत सम्यक्दृष्टि है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की क्षय, क्षयोपशम, उपशम आदि स्थिति के अनुसार क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक तीनों प्रकार के परिणाम होते हैं। यद्यपि अविरत सम्यक्दृष्टि जीव इन्द्रियों से विरत नहीं और न त्रस स्थावर से विरत होता है तथापि सम्यक्दर्शन के प्रगट होने से उसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि गुणों के साथ नि:शंकित आदि गुणों से युक्त होकर अंतरंग में संयम धारण करने के परिणामों में उद्यमी होता है। धर्म ध्यान की प्राप्ति हेतु आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय धर्मध्यानों का अभ्यास करता है। इस प्रकार के परिणामों से युक्त जीव अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला होता है।

५. विरताविरत गुणस्थान और ध्यान

जो जीव त्रस हिंसा का त्याग कर देता है तथा स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत है वह जीव एक ही समय में विरत और अविरत या विरताविरत गुणस्थान वाला है।१९ इस गुणस्थान में विरताविरत रूप परिणाम एक साथ किस प्रकार होते हैं इस विषय में गोम्मटसार जीवकांड में कहा है— जिनेन्द्र देव के वचनों पर अद्वितीय श्रद्धान रखने वाला जीव एक ही समय में त्रस हिंसा की अपेक्षा विरत और स्थावर हिंसा की अपेक्षा अविरत होता है इसलिए उसको एक ही समय में विरताविरत कहते हैं। अर्थात् विरत और अविरत दोनों ही धर्म भिन्न—भिन्न कारणों की अपेक्षा से है। अतएव सहावस्थान दोष नहीं। विरताविरत गुणस्थान में ध्यान विरताविरत गुणस्थान में आर्तध्यान रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार के ध्यान आचार्य देवसेन ने माने हैं एवं बहुत आरम्भ एवं परिग्रहवान होने से धर्मध्यान का निषेष भी किया है।

आर्तध्यान
इष्ट पदार्थ के वियोग होने से उसके संयोग का चिन्तवन करना प्रथम आर्तध्यान है, अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसके वियोग का चिन्तन अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है, रोग होने पर उसे दूर करने का िंचतवन तीसरा आर्त ध्यान है और निदान चौथा आर्त ध्यान है। आर्त ध्यान से पापों का संचय एवं तिर्यंच गति की प्राप्ति होती है।

रौद्र ध्यान
कषायों की तीव्रता में रौद्रध्यान होता है यह िंहसानन्द, मृषानन्द (झूठ में ध्यान आनंद मानना) स्तेयानन्द (चोरी में आनंद मानना) एवं (परिग्रह संचय में आनन्द मानना) परिग्रहानन्द रूप रौद्र ध्यान इन चार प्रकार से होता है। रौद्र ध्यान का फल नरक गति है। जो गृहस्थ व्यापारादि इन्द्रियों, विषयों में संकल्प विकल्प करते रहते हैं उनके आर्तध्यान एवं जिनके तीव्र मोहनीय कर्म का उदय होता है उनके रौद्रध्यान होता है।

भद्र ध्यान
इन आर्त रौद्र ध्यानों के फल को सम्यक् ज्ञानी उपशम परिणामों से समाप्त कर देता है जिसे आचार्य देवसेन ने भद्र ध्यान कहा है— ‘‘भद्दस्स लक्खणं पुण धम्मं चितेइ भोय परिमुक्को। िंचतिय धम्मं सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए।। अर्थात् भोगों का सेवन करता हुआ भी जो धर्म ध्यान धारण करता है उसे भद्र ध्यान कहा है। आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रूप चार प्रकार का धर्म ध्यान है परन्तु यह धर्मध्यान मुख्यता से प्रमाद रहित सातवें गुणस्थान में होता है किन्तु विरताविरत पाँचवें गुणस्थान में और प्रमत्त संयत छठे गुणस्थान में उपचार से होता है। पंचम विरताविरत गुणस्थान में निरालंब धर्मध्यान का निषेध धर्म ध्यान के अन्य प्रकार से दो भेद आचार्य देवसेन ने किये हैं (१) सालंब (२) निरालंब। सालंब—एक आलंबन सहित पाँच परमेष्ठी के स्वरूप िंचतवन रूप सालंब धर्म सालंब धर्मध्यान होता है। निरालंब—दूसरा जो गृहस्थी त्याग कर जिनिंलग धारण कर (मुनिदीक्षा) कर लेता है एवं मुनि होकर भी अप्रमत्त नाम के सातवें गुणस्थान में पहुँच जाता है तब उसी के निरालंब ध्यान होता है गृहस्थ अवस्था में निरालंब ध्यान कभी संभव नहीं। इसका कारण है कि गृहस्थों के सदाकाल बाह्य आभ्यंतर परिग्रह परिमित रूप से रहते हैं साथ ही अनेक प्रकार के आरंभ होने से गृहस्थ शुद्ध अवस्था का ध्यान नहीं कर सकता। यदि कोई गृहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहता है तो उसका ध्यान ढेंकी के समान है जिस प्रकार ढेंकी धान कूटने के बाद भी उससे कोई लाभ नहीं होता उसका परिश्रम व्यर्थ है। इस प्रकार गृहस्थों के निरालंब ध्यान एवं शुद्ध आत्मा का ध्यान परिश्रम मात्र है। इस प्रकार पंचम गुणस्थान में निरालंब शुद्ध आत्मा का निश्चल ध्यान कभी नहीं हो सकता।२७ इस गुणस्थानवर्ती जीवों का आलंबन सहित ध्यान धारण योग्य है।

६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान और परिणाम

प्रमत्तसंयत गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकार के परिणाम होते हैं तथा पन्द्रह प्रमाद भी इसी गुणस्थान तक होते हैं इसलिए यह गुणस्थान प्रमत्त संयत कहा जाता है। पूर्व के गुणस्थान में पापों का सर्वथा त्याग न होने से प्रमाद भी रहता है परन्तु प्रमत्त संयत गुगुणस्थान पापों का सर्वथा त्याग हो जाता है परन्तु प्रमाद अब भी उपस्थित रहता है इसलिए इस अवस्था को प्रमत्त संयत (प्रमाद सहित) कहा जाता है। महाव्रती साधु जो सकल मूलगुणों से युक्त होकर भी व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद में निवास करता है वह चित्रल अचरण वाला प्रमत्त संयत है। जिस प्रमाद में स्वयं को स्पष्ट अनुभव होता है वह व्यक्त प्रमाद है एवं जिसका स्वयं को स्पष्ट अनुभव न हो वह अव्यक्त प्रमाद है। इस प्रकार की अवस्था के कारण प्रमत्त संयत गुणस्थान के आचरण को चित्रल आचरण कहा है। पन्द्रह प्रकार के प्रमादों का वर्णन भावसंग्रह में किया है चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इन प्रमादों के कारण चारित्र और ध्यान में शुद्धता, स्थिरता नहीं होती है। प्रमत्त संयत गुणस्थान मुनि धर्म ध्यान का िंचतवन करते हैं परन्तु नोकषाय के उदय होने से उनके आर्तध्यान भी हो जाता है। फिर भी रत्नत्रय की साधना एवं स्वाध्याय के कारण वे उस आर्तध्यान का उपशम कर देते हैं। निदान नाम का आर्तध्यान इस अवस्था में नहीं होता यदित होता है तो गुणस्थागुणस्थानपतन हो जाता है। प्रमाद की अवस्था में जब तक निश्चल ध्यान नहीं होता तब तक वे मुनि अपनी निन्दा करते रहते हैं।

७. अप्रमत्त संयत गुणस्थानमें धर्म ध्यान

प्रमाद रहित अवस्था अप्रमत्त है संयत के साथ जिन जीवों के प्रमाद नहीं पाया जाता वे ध्यान में स्थित रहते हैं और उपशम अथवा क्षपक श्रेणी के सन्मुख है वह अप्रमत्त संयत है। इस गुणस्थान में औपशमिक भाव, क्षायिक भाव और क्षायोपशमिक तीनों भावों के साथ नियम से धर्मध्यान होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जब संज्वलन और नोकषायों का मन्द उदय होता है उस समय वह साधु बाहर से निरतिचार सकलचारित्र के धारक होते हैं और अंतरंग में किसी एक सम्यक्त्व के साथ रूपातीत धर्म ध्यान में स्थित इन्द्रियों के विषय एवं तीव्र संज्वलन कषाय के विजेता होते हैं। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त होने से साधक छठे सातवें गुणस्थान में प्रवर्तन करते रहते हैं। इस गुणस्थान को ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल इन चार अधिकारों में र्विणत किया है। ध्यान—ाqचत्त का निरोध करना ध्यान है अर्थात् चित्त से अन्य िंचतनों का त्याग कर किसी एक पदार्थ का िंचतवन ध्यान है। उसके चार भेद हैं। १. पिण्डस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ, ४. रूपातीत ध्याता—ध्यान को करने वाला ध्याता होता है। जो आत्मा और परमात्मा को साधता है वह साधु है। जो साधु चेतनादि भावों से उपयुक्त होकर अपने आत्मा को ध्याता है उस अनुभव को संवेदन करते हैं। जो स्वयं होते अर्थात् अपने आप को जाने उसे चेतना कहते हैं। जो स्वयं होते अर्थात् अपने आप को जाने उसे चेतना कहते हैं। संवेदन और चेतना संवेदनचेतनादि कहलाते हैं। ऐसे संवेदनचेतनादि गुणों से युक्त आत्मा ध्याता है। ध्येय—जिसका ध्यान किया जाता है वह ध्येय है। ध्येय तीन प्रकार का है— १. अक्षर, २. रूप, ३. रूपातीत अक्षर—पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों का उच्चारण अक्षर ध्यान कहलाता है। रूप—पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का ध्यान करना रूप ध्यान कहलाता है। रूपातीत—जो रत्नत्रय स्वरूप निरालंब ध्यान किया जाता है और रत्नत्रय से युक्त है तथा इसी कारण जो शून्य होकर भी शून्य नहीं है वह रूपातीत ध्येय है। निश्चयनय के कथन में ध्यान, ध्याता, ध्येय में भिन्नता नहीं है। आत्मा, अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए, अपने ही आत्मा हेतु से ध्याता है। इस प्रकार कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये षट् कारक रूप परिणत आत्मा ही निश्चयनय की दृष्टि से ध्यान स्वरूप है।

अप्रमत्त अवस्था से धर्म ध्यान का फल
मोह के मूल इष्ट अनिष्ट बुद्धि का अभाव एवं चित्त की स्थिरता ही ध्यान है। ऐसे ध्यान का साक्षात् फल निराकुल मोक्ष सुख है। प्रसन्न चित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभ उपायों में रहना, उत्तमशास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना, जिनाज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करना ये सभी ध्यान के फल हैं। भावसंग्रह में ध्यान के तीन प्रकार के फल बताये हैं— १. वर्तमान भव में प्राप्त होने वाला फल—ध्यान के प्रभाव से अतिशय गुण प्राप्त हो जाते हैं। जैसे हजारों कोस दूर के पदार्थ को देख लेना, दूर के शब्द सुन लेना इन्द्रिय ज्ञान की वृद्धि एवं आदेश करने की शिक्ति प्रकट हो जाती है। ध्यान से ज्ञान की पूर्णता, ऋद्धियाँ यति पूजा एवं केवलज्ञान होने पर जिन पूजा की प्राप्ति भी हो जाती है।

२. परलोक संबंधी फल—स्वर्गों में उत्पन्न होकर इन्द्रपद, अहमिन्द्र पद, लौकान्तिक पद आदि की प्राप्ति होना परलोक सम्बन्धी ध्यान का फल है।

३. समस्त कर्मों का क्षय—ध्यान के अंतिम फल आठ प्रकार के हैं—

१. औदारिक आदि शरीरों का नाश, २. सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति, ३. तीन लोक प्रभुत्व, ४. अनन्त वीर्य की प्राप्ति, ५. सम्यग्ज्ञान, ६. सूक्ष्मत्व, ७. अगुरुलघुत्व, ८. अव्याबाध दर्शन इन आठ गुणों की प्राप्ति होने से लोकाग्र में स्थिर हो जाना अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर पूर्ण शुद्धता को प्राप्त हो जाना ध्यान का तीसरा फल है। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में धर्मध्यान के सालंब एवं निरालंब दोनों प्रकार के ध्यानों की मुख्यता रहती है। इस गुणस्थान में छ: आवश्यकतों की आवश्यकता नहीं होने से ध्यान में लगा हुआ मन निरन्तर अत्यंत स्थित हो जाता है।

८. अपूर्वकरण गुणस्थान एवं परिणामों की स्थिति

संज्वलन और नो कषायों के मन्दतर उदय होने पर अध:करण परिणामों की प्रवृत्ति में अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रह कर प्रतिसमय अपूर्व—अपूर्व विशुद्धि वाले परिणामों के धारण करने से वे ही अप्रमत संयत अपूर्वकरण परिणामों में प्रवृत्ति स्वरूप अष्टम गुणस्थानवर्ती होते हैं सातवें गुणस्थान में स्थित ध्यानी दो प्रकार के मार्गों का अवलम्बन लेता है क्षपक श्रेणी और उपशम—श्रेणी। कर्मों को नष्ट करते हुए क्षपक श्रेणी एवं कर्मों के उपशम से उपशम श्रेणी होती है। उपशम श्रेणी से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर कर्मोदय होने पर नीचे के स्थानों में आ जाते हैं और क्षपक श्रेणी से कर्मों का क्षय कर बारहवें, गुणस्थान के अंत में केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान और ध्यान—अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रथम शुक्लध्यान दोनों श्रेणी वाले जीवों के होता है। वह शुक्ल ध्यान तीन प्रकार है— १. पृथक्त्व, २. सवितर्व, ३. सवीचार पृथक्त्व ध्यान—ध्यान में स्थित मुनि जिस ध्यान में द्रव्य की पर्यायों एवं गुणों को पृथक्—पृथक् जानते हैं वह ध्यान पृथक्त्व ध्यान है। सवितर्व ध्यान—वितर्व से तात्पर्य श्रुतज्ञान है अर्थात् जो ध्यान सदा काल श्रुतज्ञान के साथ रहे वह सवितर्व ध्यान है। सवीचार ध्यान—योग पदार्थ और शब्दों का बदलना वीचार कहलाता है। वीचार सहित ध्यान सवीचार है—जिस ध्यान में िंचतन किये हुये पदार्थों व उनको करने वाले शब्दों का िंचतवन मन से, वचन से, काय से या क्रम बदल कर अर्थात् कभी काय से या कभी मन से या कभी वचन से िंचतवन किया जाता है अर्थात् जिसमें योग बदलते ही पदार्थ और उनके वाचक शब्द भी बदलते रहते हों वह सवीचार ध्यान है। यह ध्यान कर्म वृक्ष को काटने के लिये बिना धार वाली कुल्हाड़ी के समान है जो देर से कर्मों का नाश करता है। इस गुणस्थान में कर्मों का क्षय या उपशम होने पर जो अपूर्व परिणाम होते हैं वैसे अपूर्व परिणाम पूर्व में कभी नहीं हुए इसलिए यह गुणस्थान अपूर्वकरण है।

९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में परिणामों की स्थिति

अपूर्वकरण के समान इस गुणस्थान में उत्तरोत्तर जो परिणामों की शुद्धता होती जाती है वह शुद्धता वृद्धि को प्राप्त होती है कम नहीं होती इसलिये यह गुणस्थान अनिवृत्ति करण है। जिसमें परिणामों की स्थिति बढ़ती रहे एवं निवृत्त न हो और बढ़ती ही चली जाय वह अनिवृत्तिकरण है। इस गुणस्थान में औपशमिक भाव और क्षायिक भाव दोनों श्रेणी के अनुसार होते हैं उपशम श्रेणी वाले के उपशम एवं क्षपक श्रेणी वाले के क्षायिक भाव होते हैं। अनिवृत्तिकरण में ध्यान की अत्यन्त निर्मलता के साथ पहला पृथक्त्व वितर्वâ वीचार नाम का शुक्लध्यान होता है। इस गुणस्थान की विशेषता है कि इस गुणस्थान में एक समय में जितने जीव स्थित होते हैं उन सभी के परिणाम समान होंगे एवं वे परिणाम निवृत्ति रूप नहीं होते।

१०. सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान और परिणाम

सूक्ष्म सांपराय से तात्पर्य सूक्ष्म कषाय से है जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय शेष है जिससे चित्त सूक्ष्म अशुद्धता से युक्त होता है वह सूक्ष्मसांपराय है। इस गुणस्थान में औपशमिक श्रेणी वाले के औपशमिक एवं क्षपक श्रेणी वाले के क्षायिक भाव होते हैं। तीनों भेद वाला प्रथम शुक्ल ध्यान होता है। जिस प्रकार कुसुमल में रंगे हुए वस्त्रों में लाली अत्यन्त सूक्ष्म होती है इसी तरह इस गुणस्थान में लोभ कषाय अत्यन्त सूक्ष्म होती है।

११. उपशांत कषाय गुणस्थान और परिणाम

मोह की समस्त प्रकृतियों के उपशम में उपशांत कषाय गुणस्थान होता है इस गुणस्थान में क्षपक श्रेणी वाले नहीं आ सकते जो प्रारंभ से उपशम श्रेणी पर आरूढ़ है वही इस गुणस्थान के पात्र बनते हैं। इस गुणस्थान में पृथक्त्व वितर्वâ शुक्ल ध्यान एवं औपशमिक भाव ही होते हैं। गुणस्थान के अंत में मोहनीय की समरूत प्रकृतियाँ जो उपशांत थीं वे उदय में आ जाती है जिससे ग्यारहवें उपशांत गुणस्थान से नीचे पतन हो जाता है।

१२. क्षीणमोह गुणस्थान में ध्यान

समस्त मोहनीय कर्म के क्षय से क्षीण मोह गुणस्थान होता है जैसे शुद्ध स्फटिक मणि में रखा हुआ जल शुद्ध निर्मल हो जाता है इसी तरह जिसकी कषायें पूर्णरूप से नष्ट हो गई हैं ऐसे क्षीण कषाय गुणस्थान में स्थित मुनि के परिणाम सदाकाल निर्मल रहते हैं एवं उन मुनियों के क्षायिक भाव ही होते हैं। ध्यान में स्थित मुनि बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में अपने प्रवाहित ध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों का नाश कर पूर्ण निर्मल केवलज्ञान प्रकट करते हैं। यह केवलज्ञान लोक—अलोक को एक साथ प्रकाशित करने वाला होता है। इस ज्ञान में कोई उपद्रव नहीं होता और वह ज्ञान फिर कभी भी नष्ट नहीं होता अनंतकाल तक बना रहता है।

१३. संयोग केवली गुणस्थान में ध्यान की अवस्था

जिन के केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अंधकार नाशक, क्षायिक सम्यक्त्व ज्ञान, चारित्र, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य इन नौ लब्धियों की प्राप्ति होने से जिन्हें परमात्मा या जिन संज्ञा प्राप्त हो गई है वह ज्ञान की पूर्णता सयोग केवली गुणस्थान की है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन के शुद्ध क्षायिक भाव विकल्प रहित और निश्चल होते हैं। इस गुणस्थान में सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति तीसरा शुक्ल ध्यान होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन अत्यन्त सूक्ष्म होने से जो शुभ कर्मों की वर्गणाएँ आती हैं वे उसी समय चली जाती हैं आत्म प्रदेशों में वे कर्मवर्गणाएँ रुकती नहीं हैं। इसका कारण है कि उन केवली भगवान के रागद्वेष का सर्वथा अभाव होने से उनके कर्मों का बंध नहीं होता। इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से जितने वर्ष की आयु में केवलज्ञान हुआ उतने वर्ष कम एक करोड़ पूर्व।

१४. अयोग केवली गुणस्थान में ध्यान की स्थिति

जहाँ योगों का अभाव हो गया है वह अयोग है और केवलज्ञान होने से केवली है अर्थात् जो योग रहित होकर भी केवली है वह अयोग केवली गुणस्थान हैं जिस योगी के कर्मों के आने के द्वारा रूप आस्रव का सर्वथा अभाव हो गया है तथा जो सत्त्व और उदयरूप अवस्था को प्राप्त कर कर्मों की रज से सर्वथा मुक्त होने के सम्मुख है। उस योग रहित केवली को अयोग केवली कहते हैं। इस गुणस्थान में समस्त योगिक क्रियाओं का अभाव हो जाने से चौथा व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम का शुक्ल ध्यान होता है एवं क्षायिक और शुद्ध भाव होने से भगवान निरंजन और वीतरागी होते हैं। जिस प्रकार का ध्यान सयोगी गुणस्थान में होता है वैसा ध्यान न होकर उपचार से ध्यान माना जाता है कर्मों का नाश बिना ध्यान से नहीं होता इस अपेक्षा से उपचार से ध्यान माना है क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में अघातिया कर्मों का नाश होता है। ध्यान की अवस्था, ध्याता की स्थिति, ध्यान योग्य ध्येय पदार्थों के विकल्प से सभी मन सहित जीवों के होते हैं लेकिन सयोगी एवं अयोगी अवस्था में मन का अभाव होता है इस अपेक्षा से तेरह चौदह गुणस्थान में ध्यान नहीं होता।। इस प्रकार ध्यानों का विभिनन दृष्टियों से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि गुणस्थान का ध्यान से अविनाभाव संबंध है। धर्म ध्यान के बिना अध्यात्म विकास के सोपान गुगुणस्थान पर आरोहण संभव नहीं होता और शुक्ल ध्यान के बिना श्रेणी आरोहण कर कर्म क्षय करके अरिहंत अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता और अंतिम शुक्ल ध्यान के अभाव में मोक्ष अवस्था प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार आचार्य देवसेन एवं विभिन्न दृष्टियों के अवलोकन से निष्कर्ष निकलता है कि ध्यान के बिना गुगुणस्थानहीं और गुगुणस्थान बिना ध्यान नहीं।