दिगम्बर—श्वेताम्बर संघभेद का समय

उज्जयिनी में जब वीर. नि.सं.४७४ में महावीर जयंती के दिन द्वि. भद्रबाहु जैन यति बने तब कुछ दिन बाद उनको उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल पड़ने का संकेत मिला। निमित्त ज्ञान से उन्होंने जाना और घोषणा की कि इस भाग में १२ वर्ष का अकाल पड़ेगा अत: जहाँ सुभिक्ष हो वहां विहार करना चाहिये। वे स्वयं भी दक्षिणापथ में चले गये।

अत: वीर. नि. ४७५ से ४८६ तक बारह वर्ष का अकाल रहा। इसी कारण इस समय वलभी (गुजरात) के जैन यतिसंघ ने वस्त्र पात्र स्वीकार किया था। जो साधु भद्रबाहु के नेतृत्व में महाराष्ट्र आये थे वे संघरूप से जुन्नर, तेर, नासिक, गोवर्धन, सोपरग, पाले, कार्ले, करजक, कान्हेरी, कल्याण, सुदर्शना, करवड़ी, मामाड (मावत), बेणाकट, नानगोल आदि जगह विहार कर रहे थे। तब इनके संघ को भद्रायनीय महासंघ कहा जाता था। अनेक सातवाहन राजाओं ने तथा मुनिभक्त श्रावक श्राविकाओं ने उस भद्रायनीय मुनिसंघ को आहार, औषधि तथा निवास का दान देकर उनका यथोचित सत्कार किया था। वीर नि. ४८७ व ४८८ में जब अच्छी बरसात हुई तब गुजरात संघ के नायक शांतिगणी ने छेदोपस्थापना करने का आदेश निकाला किन्तु संघस्थ एक सुखासीन शिष्य ने उनका ही घात कर ‘स्वतंत्र श्वेतसंघ’ की घोषणा की। ऐसे में तीन वर्ष निकल गये। वीर नि. ४९१ में जब आ.भद्रबाहु का संघ उत्तर भारत में आया तब जनता में उनका उत्साह से स्वागत हुआ तथा उनका आचार्यपद भी मान्य किया गया।८ जनता का रुख देखकर श्वेतसंघनायक जिनचन्दसूरि (या चन्द्रनंदी) ने संघ परिवर्तन कर लिया।

नागार्जुन आदि साधु श्वेताम्बर संघ में ही रहे। उन्होंने वल्लभी में ही श्रुतसंकलन का प्रयत्न किया। उसी वर्ष मथुरा में भी आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में द्वितीय श्रुतवाचना हुई किन्तु श्रुत संकलन के समय जब ‘मुनि के लिये क्या वस्त्र—पात्र का विधान होना चाहिये या नहीं?’ यह प्रश्न आया तो विवाद खड़ा हुआ और आर्यमंगु आदि मुनि उस सम्मेलन से बाहर हो गये।

इस बढ़ते विरोध को रोकने के लिये उत्तर भारत में वीर नि. ४९२ में फिर से भद्रबाहु को ही गणी बनाया गया। वीर नि. ४९६ में भद्रबाहु ने जब दक्षिणापथ जाने का विचार किया तब यापनीय अर्हद्बली को आचार्य पद दिया गया। कारंजा के नंदीसंघ पट्टावली में इनकी उत्पत्ति श्वेताम्बरों में से बताई है। इनके चार शिष्य थे— (१) माघनंदी (२) चन्द्रनंदी (जिनचन्द्र) (३) वीरनंदी तथा (४) जिननंदी (जिनसेन)। अर्हदबली के जीवित रहते समय ही माघनंदी तथा जिनचन्द्र वी. नि.सं. ५१८ तक पट्टधर रहे हैं।