ऋग्वेद मूलत: श्रमण ऋषभदेव प्रभावित कृति है!

ऋग्वेद मूलत: श्रमण ऋषभदेव प्रभावित कृति है!

विश्व के विद्वानों, इतिहासकारों एवं पुरातात्विकों के मतानुसार इस धरती पर ईसा से लगभग ५०००—३००० वर्ष पूर्व के काल में सभ्यता अत्यन्त उन्नति पर थी। मिस्र देश के पिरामिड और ममी, स्पिक्स, चीन की ममी, ग्रीक के अवशेष, बेबीलोन, भारत के वेद, मोहनजोदड़ों—हड़प्पा के अवशेष, तक्षशिला, नालन्दा आदि कुछ ऐसे ही प्रतीक है जो अपनी कला, संस्कृति सभ्यता और सामाजिक चेतना के चरम बिन्दु से लगते हैं।

भूविशेषज्ञों के मतानुसार अनेकों बार लम्बे काल में हमारी धरती पर प्रमुख बदलाव ऐसे आये हैं जिन्होंने धरती का भूगोल ही बदल दिया। जो धरती लाखों वर्ष पूर्व इकट्ठी थल रूप थी तथा जल से घिरी थी, पंजिया कहलाती थीं। वही धरती लाखों वर्षों के अन्तराल में धीरे—धीरे अब ६ महाद्वीपों और अनेकानेक द्वीपों में बदल चुकी है। जैन आगमों में र्विणत थालीनुमा धरती से यह जानकारी बहुत मेल खाती है। उसी के अनुसार भांगभूमि काल में हरे—भरे जंगल, फल—फुल, वनस्पति और पवन, जल, जीव आदि इतने अनुवूâल थे कि सभी प्राणियों का जीवन सर्व सुरक्षित और सुखमय था। उस थालीनुमा भू—भाग पर बड़े—बड़े हाथी, डायनासोर घूमते—विचरते अन्य पशुओं / प्राणियों के साथ जीवन यापन करते थे। मनुष्य निर्दोष, निर्विकल्प, संतुष्ट और सुखी सा विचरण करता था। प्रकृति उन्हें भरपूर देती थी। यह जैन आगमों के अनुसार कल्पवृक्षों वाला (भोगभूमि) युग था। फिर भूगर्भीय परिवर्तनों ने भूकम्प, ज्वालामुखी और नैर्सिगक प्रकोपों के संकेत देने प्रारम्भ कर दिये। इसे प्रलय पुकारा गया। बड़े—बड़े डायनासोर और हाथी जीवित ही धरती में दफन हो गये जिनके कंकाल आज भी जहाँ—तहाँ मिलते हैं। मनुष्य को जलवायु और वनस्पतियाँ समस्यात्मक लगने लगी। मनुष्य ने अपनी नेता से जीवन की समुचित राह चाही। जैन मान्यतानुसार वह नेतृत्व ऋषभदेव का ही था जिन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प को जन्म दिया। यह सब इतना प्राचीन है कि उसके प्रमाण आज मात्र पौराणिक, सांस्कृतिक और र्धािमक आधार पर ही दिये जा सकते हैं तथा जिन्हें किसी भी प्रकार से खंडित भी नहीं किया जा सकता है।

मंडला -भंडारा की गुफाएँ

मंडला—भंडारा की गुफाओं तथा भोपाल की भीमबेटिका गुफाओं में ८ से १० हजार वर्ष पूर्व की आदिम मानव सभ्यता के रेखाचित्र यही दर्शाते हैं कि तब भी मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों में वैसा ही लीन था जैसा कि आज की आदिम जातियाँ है। सम्पन्न समाज परिष्कृत था जिसकी अपनी बोली थी, लिपि थी। ऋषियों, तपस्वियों के पास ज्ञान था और जीवन के तरीके थे। विश्व के रहस्यों को जानने की तीब्र उत्कुठा थी। उसके बाद मानव ने किस प्रकार भाषा और लिपि को बदला, भाषाविदों के लिये यह जानने की बात अवश्य है। स्वर को संकेत देकर लिपि ने विश्व के भिन्न—भिन्न कोनों में भिन्न—भिन्न रूप पाये। समय के साथ वे रूप भी बदलते गये और भाषायें और लिपियाँ भी बदलती गर्इं। विश्व के प्राचीनतम साहित्य के रूप में ‘पेपीरस’ और ऋग्वेद को ही जाना एवं माना जाता है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार ऋग्वेद का जन्म लगभग १०,००० ईसा पूर्व वर्ष में हुआ जिसमें श्रुतज्ञान की अवस्थिति मौखिक ही प्रमुख थी। अर्थात् उसके पृष्ठों में तत्कालीन भाषा का दिग्दर्शन हमें आज भी मिलता है। उस समय १८ महाभाषाएँ और ७०० लघु भाषाएँ प्रचलित थीं। वह ग्रंथ सामान्य और जन—जन में बोली जाने वाली तब प्रचलित शौरसेनी (मूल) प्राकृत का प्रतीत होता है भले ही उसे संहिताओं द्वारा बाद में लिपिबद्ध किया गया। उसमें दो विशेषताएँ देखने में अवश्य आती हैं। पहली सिर को पार करती हुई खड़ी सोत्राएँ और दूसरी है नीचे की आड़ी रेखाएँ। इसके अलावा शौरसेनी का भरपूर शाब्दिक उपयोग भी देखा जा सकता है। यह भाषा आज भी सहज ही दक्षिण भारत में समझी जा सकती है। भारतीय संगीत जगत की भी यही भाषा है।

ऋग्वेद की भाषा संस्कृत मिश्रित प्रवृृâत है। प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के मतानुसार ऋग्वेद की रचना एक ही बार में ना होकर धीरे—.धीरे लम्बे अन्तराल में अनेकों (२७) संहिताओं के संकलन के रूप में हुई है। अंतराल होने पर भी भाषा की शैली में अधिक अंतर ना आ पाने से वह समान रूप से समझी जाती रही है। विश्व के सामने इससे पुरातन लिखित शास्त्र अन्य कहीं उपलब्ध नहीं है। यह ग्रंथ इस हेतु बहुत सी बातों की ओर सूक्ष्मता से संकेत देता है। उचित होगा कि सर्वप्रथम हम यही देखें कि यह धर्म ग्रंथ अपने अन्दर क्या सजाये है ? हमारे देखने में ऋग्वेद की दो कृतियाँ आई हैं—(१) दयानंद सरस्वती संस्थान, दिल्ली द्वारा प्रकाशित तथा (२) पं. रामगोविन्द त्रिवेदी द्वारा सम्पादित विद्या भवन, चौखम्बा, वारणसी द्वारा प्रकाशित। इनमें हमने पहली को ही अपना आधार बनाया है।

इसके १० मंडलों में सूक्ति और ऋचाएँ है जिनमें प्रकृति के मूल अवयवों अग्नि, पवन, जल, सूर्य, इन्द्र, अन्न, वनस्पति तथा पृथ्वी को देवस्वरूप मानते हुए उनकी पूजा अर्चना की है। वनस्पति की औषधमय महत्ता पहचानते हुए इन नैसर्गिक प्रतीकों को ‘देव’ मानकर उन्हें प्रसन्न रखने का उपक्रम यज्ञों द्वारा आदेशित किया दिखता है। ईश्वर की कल्पना इन्हीं अवयवों के आधार पर की गई है जिसमें कृषि हेतु वृषभ और गौ की सर्वाधिक प्रधानता दर्शायी गयी है।

इसकी उपयोगिता दर्शाने वाला जिसे ‘मनु’ कहा गया है वह आखिर कौन है ? उसका मनुस्मृति वाले मनु से क्या सम्बन्ध है जिसने स्त्रियों तथा शूद्रों के सम्बन्ध में अपने आदेश निषेधात्मक दिये हैं ? शोध का यह गंभीर विषय बनता है। क्योंकि यह ऋग्वेद में स्पष्ट नहीं किया गया हैं जैनागम र्विणत १४ मनुओं में नाभिराय को अंतिम मनु अथवा कुलकर माना गया है जिनके बेटे ऋषभकुमार थे। ज्ञान दाता वह राजा, वह नेता, वह मार्गदर्शक कौन है, यह भी ऋग्वेद में स्पष्ट अंकित नहीं किया गया है। पुन: क्योंकि जैनागम इस हुंडावर्सिपणी के कर्म युग के दिग्दर्शक आदिनाथ को ही सर्वश्रेय देते हैं जिन्होंने समाज की षट्विद्याएँ और ७२ कलाएँ दी। कृषि, असि, मसि, विद्या, शिल्प, वाणिज्य तो दी ही, अपनी बेटियों को गणित (अंक विद्या), लिपियों तथा बेटों को ज्योतिष, न्याय, शास्त्र आदि की शिक्षा भी दी है। यह स्वाभाविक हो जाता है कि वही ‘मनु’ ऋषभ के पिता के रूप में कदाचित यहाँ भी प्रतिष्ठित हुए हैं और उन्हें नाभि नाम से स्वीकारा भी गया है। उनके पिता अजनाथ के ही नाम से भारत को अजनाथ वर्ष पुकारा जाता था जिसकी सीमायें तब बहुत व्यापक थीं। उस प्रारम्भिक दण्ड व्यवस्था में जिसमें हा……! मा…….!धिक……। की व्यवस्था थी, उन्होंने सम्मति दी थी, उसे ऋग्वेद में भी प्रस्तुत किया गया है। सांकेतिक प्रस्तुति भी अपने आप में पाठक को सत्य दर्शन की झलक से अवगत करा देती है।

अयमस्मान्वस्पतिर्मा च हा मा चं रीरिपत्।
स्वस्त्या गृहेभ्य आवसा आ विमोर्चनात्।।२।।२२।।
ऋग्वेद ग्रंथ में ‘पदार्थ’ स्तुति के रूप में ‘रूपान्तरण’ तथा वहीं पर भावार्थ के रूप में श्लोक को जिस भूमिका तथा आशय से प्रस्तुत किया गया है वह बेहत अधकचरा कमजोर और एकांगी है तथा वेद जैसे प्रसिद्ध, ख्यातिप्राप्त, पाचन ग्रंथ की पृष्ठभूमि को समझे बगैर उसके अस्तित्व को ही तुच्छ करा देता है। इसका मान पाठक ऋग्वेद की सूक्तियों को उनके प्रस्तुत पदार्थ तथा भावार्थ को पढ़कर स्वयं आंक सकते हैं।

वास्तव में ऋग्वेद उन ज्ञानियों, तपस्वियों मनीषियों की स्तुति रूप प्रस्तुति है जिन्होंने उस युग की मानव समाज को कल्पवृक्ष विलीन होने पर जीने के तरीके सिखलाये यथा विद्युत, अग्नि वैâसे उत्पन्न की जाये, उसके उपयोग और तेज की तुलना ‘सेना’ और ‘राजा’ से करते हुए राजा क्या करें या न करे, मनुष्य के कर्तव्य और निषेध दर्शाये हैं। यहाँ तक कि विद्वान क्या करे और विदूषियां क्या करें यह भी दर्शाया है। यही स्पष्ट करा देता है कि अमृता प्रीतम के कथन में सत्यता है कि ऋग्वेद की रचना काल में विदुषियां थीं और उनका सहयोग ऋचाओं की रचनाओं में अत्यन्त स्वाभाविक और सहज रहा। जैन धर्म की मान्यतानुसार ऋषभदेव की दोनों पुत्रियाँ ब्राह्मी तथा सुन्दरी उस काल की परम विदुषियाँ थीं। उस ऋग्वेद का कहना कि ‘‘उत्तम वि़द्या और गुणों से युक्त महिलाओं का ही ‘आश्रय लो’ मात्र श्रमण परम्परा में स्वीकृत तथा मान्य होने के कारण उत्तरकालीन आर्य परम्परा में भी मान्य रहा प्रतीत होता है।

मानव समाज की लौकिकता का मार्ग दिखलाने वाला यह ग्रंथ आध्यात्मिकता के धरातल पर उठने की भावना रखते हुए जिन गुणी जनों की अर्चना (वन्दना) करता है वे हैं अर्हन्, जिन, केवलि, केशी, मुनि और वातरशना जो जैन श्रमण धर्म में पूज्य अर्हन्त और (आप्त) सिद्ध को ही इंगित करते हैं। ‘मुझे भी हे प्रभु, अपने जैसा योग्य बनने का मार्ग दिखा। पदार्थ की आड़ में आज वर्दािथयों ने सूर्य का अर्थ मात्र चमकने वाला सूर्य को ही मान लिया है। यह उनकी बुद्धि की स्थूलता है। क्योंकि सूर्य आत्मा के तेज को, ज्ञान के प्रकाश को भी कहा जाता है। वही देवों का देव है। उपरोक्त सभी संकेत ऋग्वेद की संकलन कालीन ऋचाओं को उनकी संहिताओं में उल्लिखित नामों के आधार पर पूर्व से चली आ रही श्रमण परम्परा की झांकी दिये बिना नहीं रहते। ऐसा संभव है कि यज्ञ सम्बन्धी ऋचाओं को उत्तरकालीन संहिताओं के माध्यम से ऋग्वेद में बहुत बाद में प्रवेश दिलाया गया हो, किन्तु मूल में तो यह ग्रंथ श्रमण जैन परम्परा से ही प्रभावित दिखता है।

मनुष्यों के बीच नरश्रेष्ठ (अति उत्तम) ‘वृषभ’ कहा जाने वाला मात्र बैल अथवा सांड तो हो नहीं सकता, हाँ ये संभव माना जा सकता है कि जिसका चिन्ह वृषभ हो ऐसा ‘ऋषभ’ इनका भी परम इष्ट रहा है। परमेश्वर के अनन्तत्व और अमरत्व के बारे में कहते हुए अनेक ऋचाएं बतलाती हैं कि यह जो आप स्वयं को जीतकर आयु रहित कर चुके हैं अर्थात् हे जिन अथवा जिनेन्द्र भगवान जिन्होंने कर्मों को जीत कर अमरत्व पाया है हमें भी सुरक्षित कीजिये। पुन: आगे भी लिख गया है कि ‘परमेश्वर (आत्मा) अनंत बलों का स्वामी है। मनुष्यों को उन्हें जानना चाहिये। आध्यात्म यज्ञ तप करने वाले उपासकों को उनका ज्ञान है और वे पाप तथा कर्मों को अपने पुरुषार्थ से क्षय कर देते हैं।’ यहाँ पूरा—पूरा कर्म क्षय सम्बन्धी जैन सिद्धान्त ही प्रस्तुत हुआ है जो सिद्धत्व के अनंतत्व और अमरत्व की ओर संकेत करता है। आगे यह भी कहा है कि जिनके असाधारणपने को कैवल्य पुकरा जाये वह हे परमात्मा……..। गणधरों जैसे ज्ञानियों ने जिस कल्पना को परमात्मा कहकर पुकारा है वह नरश्रेष्ठ व जितेन्द्रिय है अपने पुरुषार्थ से प्रजा का मार्गदर्शन, मानवों में सूर्य सा प्रखर तेजस्वी, परमतपी, परम इष्ट ऋषभ है, वृषभ है, केशी हैं, वातरशना है, अर्हन है, सूर्य के समान सब लोकों को प्रकाशित करा है सर्वत्र व्याप्त है सर्वज्ञ है अर्थात् परम शुद्ध (ज्ञान) स्वरूपी आत्मा है जिसमें लोक का प्रत्येक ज्ञेय झलक रहा है। वही वृषभ आनंद वर्धक गुणों में आनंद गमन करता है। वही मुनि (मौनि) विज्ञान युक्त आत्मा एवं मन: सत्य वाला देवों का देव है। वह वैâशी तेज युक्त है, ज्योति युक्त आत्मा है, नग्न है। वहीं ऋषभ, परमात्मा, कर्म शत्रुओं को नाश करने वाला है। उसी परमात्मा (ऋषभदेव) की उच्चरित दिव्यध्वनि को सरस्वती कहकर पूज्य माना गया है जो ऋग्वेद में भी मान्य है। जबकि विष्णु के साथ ‘लक्ष्मी’ को याद भी नहीं किया गया। विशेषकर वाणी और बुद्धिवर्धन ज्ञान को ही धन माना है। प्रबुद्ध पाठक इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि भला विष्णु के साथ सरस्वती का संयोग कैसे था ?

एक ओर तो ऋषभ, वृषभ और उनकी कृषि प्रधान व्यवस्था को ऋग्वेद में दर्शाया गया है आखेद को नहीं। दूसरी ओर अर्हन, केशी, जिन और वैवल्य जैसी आध्यात्म और तप की चरम स्थितियों को भी याद किया गया है जो श्रमण धर्म का चरम लक्ष्य रही है। जिसके अन्तर्गत वर्ण भेद रहित मनुष्यता ही मान्य है। जो सह अस्तित्वता सभी जीवों के साथ स्वीकारती है। जिस पर आश्चर्य की बात ये है कि हा, मा, दण्ड व्यवस्था को स्वीकार करने वाली ऋषभ कालीन दण्ड व्यवस्था को भी याद किया है किन्तु वर्तमान में प्रचलित जैनेतर मान्यताओं के शंकर, गणेश, कृष्णज्ञ, हनुमान, राम आदि संज्ञाओं का उल्लेख तक नहीं किया। अस्ष्टिनेमि को बार—बार धुरी मानकर याद करने वाली ऋचाओं के आस—पास भी कृष्ण को स्मरण नहीं किया गया जबकि वे अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) २२ वें तीर्थंकर के चचेरे भाई थे। यह सब देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है कि ऋग्वेद मूलत: एक अिंहसक जैन ग्रंथ रहा है, जिसे बाद में जोड़ी गयी संहिताओं के आधार पर यज्ञों और िंहसा की ओर मोड़ दिया गया। महावीर को इसी हेतु पथ भ्रष्ट समाज को पुनर्जाग्रत करना पड़ा। अिंहसा की परम्परा महावीर काल में पुन: स्थापित होते हुए भी गौतम बुद्ध के मध्यमार्गी प्रवाह की ओर सहज मुड़ गयी। उसे भी श्रमण नाम दे दिया गया। किन्तु पूर्व से चली आ रही श्रमण जैन परम्परा मात्र ऋषभ प्रर्दिशत एवं प्रस्थापित दीर्घ परम्परा सिद्ध होती है। अर्हन्तों की परंपरा उस गौतम बुद्ध समर्थक काल से भी अत्यन्त प्राचीन काल में जैन श्रमणों द्वारा स्वीकारी गयी थी जिसके साक्ष्य मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त पांच हजार वर्ष पूर्व कालीन कायोत्सर्गी नग्न घड़, सीलें, वृषभ के टेराकोटा अवशेष आदि हैं जिनमें ऋषभदेव को ही धर्म प्रवर्तक माना गया था घोर तप से बढ़ी हुई लटों के कारण जिन्हें वैशी कहा गया था। और दिगम्बरत्व के कारण वातरशना पुकारा गया था। आज भी मथुरा अवशेषों के रूप सारनाथ संग्रहालय से देखें जा सकते हैं। अरिष्टनेमि उन्हीं अर्हन्तों की कड़ी में २२ वें तीर्थंकर हैं जिनके नाम से उल्लिखित एक पद्मासन मुद्रा [मूर्ति] लखनऊ संग्रहालय में अवस्थित है जो अरिष्टनेमि नाम की ऐतिहासिक महत्ता को स्थापित करती है। ऋग्वेद उन्हीं २२ वें तीर्थंकर के बाद की संकलित कृति प्रतीत होती है जो उन्हें याद भी करती है और शौरसेनी प्राकृत में भी लिखित है। शौरसेनी प्राकृत संस्कृत का वह रूप मानी जाती है जो सूरसेन जनपद की भाषा (मथुरा नेमिनाथ के पति की राज्य की ही भाषा) ही थी। भाषाविदों में विशेषत: यूरोपियन विद्वानों (जर्मन) ने तो इसमें दिगम्बरी भाषा का संकेत दिया है तथा इसका उल्लेख डॉ, सरयूप्रसाद अग्रवाल, लखनऊ द्वारा लिखित प्राकृत विमर्श में स्पष्ट देखा जा सकता है। वररूचि की भाषा भी यही शौरसेनी है जो ऋग्वेद में प्रयुक्त है तथा आज भी दक्षिण भारत की भाषाओं में जिसकी झलक मौजूद है। अत्यन्त अल्प शब्दों में अति व्यापक अर्थ की प्रस्तृति इसकी प्रथम विशेषता है।

निष्कर्ष

एक नहीं अनेकों साक्ष्यों के साम्य को देखते हुए मैंने तो यही निष्कर्ष निकाला है कि श्रमण जैन मान्यता के अनुसार ऋषभदेव द्वारा प्रर्दिशत कृषि, असि, मसि, वाणिज्य, कला, शिल्प की षट विद्याओं के प्रति अपने आधार स्वरूप मानव ने उन्हें उनके शासन काल में ही अत्यन्त प्रधानता देते हुये कृषि, गौ और वृषभ की र्मूितयाँ बनाकर सर्व कामना पूर्णकर्ता मान पूजना प्रारम्भ कर दिया रहा। उसी परम्परा के चलते हुए हा, मा,धिक वाली दंड व्यवस्था तथा बाम्ही, सुन्दरी संस्कृति में विदुषियों को सम्मान तथा विशेष स्थान का भी ध्यान रखा गया जो मनुस्मृति की मान्यताओं से सर्वथा विपरीत है। जैन मान्यतानुसार जिन चार गतियों में भ्रमण करते मानव, देव, तिर्यन्च और नारकी दर्शाये गये हैं उनमें से एक अर्थात् देवों में इन्द्र को भी पूज्य मान लिया गया जो जैन मान्यतानुसार तीर्थंकर की सेवा में हरदम तत्पर रहता है। उसी ऋषभ (वृषभ) की परमात्मा, अर्हन, केवली, देवों का देव भी वेद रचयिता जानते रहे, मानते रहे। आत्मा को परमात्मा जानकर उसकी मुक्ति का लक्ष्य भी इष्ट रहा। आप्त जो शुद्ध ज्ञान स्वरूपी कैवल्य का द्योतक है, ही श्रेष्ठ रहा। यही स्पष्ट करा देता है कि उस काल में मान्य अग्नि, वायु, जल पृथ्वी आदि में अग्निकाय तथा अग्निकायिक, वायुकाय तथा वायुकायिक, जलकाय तथा जलकायिक और पृथ्वीकाय एवं पृथ्वीकायिक जीवों तथा इन्द्र, सूर्य आदि में वैमानिक देवों की कल्पना जैनाधार में दर्शाये गये तथा मान्य स्वस्तिक संकेत पर ही आधारित थीं। इस स्वास्तिक वाली मृदा मुहर भी खुदाईयों में उपलब्ध हुई हैं। बाद में कुछ स्वार्थपरक—भ्रमित व्यक्तियों ने इसमें जहाँ—तहाँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की कल्पना करते हुए यज्ञों संबंधी ऋचाओं को जोड़कर इस मूल अिंहसक ग्रंथ को हिन्सक बना दिया। ऋग्वेद में उपर्युक्त पूर्व प्रचलित शब्द ही अपने आप में इस बात का ठोस प्रमाण है कि उन्हें तत्कालीन प्रभावना और महत्ता के कारण ही उपयोग में लाया गया। आज उनका अर्थ खींच—तानकर पदार्थ तथा भावार्थ अन्यथा बिठाना, उसकी स्वप्रामाणिकता को नहीं हिला सकता क्योंकि उसमें आधुनिक प्रचलित गणेश, शंकर, कृष्ण, राम हनुमान, नहीं बल्कि वृषभ और ऋषभ हैं। वही महादेव हैं वही ब्रम्हा हैं वहीं विष्णु हैं जो कि धन लक्ष्मी नहीं ‘‘ज्ञानलक्ष्मी’’ वान है। उनका लांछन बैल है। यह सारे तथ्य पाठकों को ईमानदारी से स्वीकारना होंगे। अपनी स्वयं की महत्ता दिखलाते हुए स्वयं को मनु कहने वाला वह कौन व्यक्ति था जिसने महिलाओं एवं उपेक्षित वर्गों द्वारा वेदों को पढ़ा जाना वर्जित किया ताकि उसके द्वारा योजनापूर्ण ढंग से जोड़ी गयी विकृतियाँ पाठकों की पकड़ में न आवे, यह भी खोज निकालना होगा। इसी विकृति का फल है कि आज भारत जैसे अिंहसक देश में हर ओर हिन्सा का क्रूर ताण्डव है। कृष्ण की गायें कट रही हैं। निरीह पशु जीवन जीने के लिये छटपटा रहे हैं और मनुष्य मनुष्यत्व को ठुकराकर व्रूर अट्ठहास करता सबको यातना दे रहा हैं यह सब धर्म के नाम पर हो रहा है क्योंकि भारत हिन्दुस्तान है जहाँ वेदों को मान्यता देने वाले हिन्दु रहते हैं और वेदों को यज्ञ—हिंसा वाला जाना जाता है। पाश्र्वनाथ, महावीर और बुद्ध ने इन्हीं भ्रामक विकृति और योजनाओं का विरोध किया तो क्या आश्चर्य ? महावीर के गणधर गौतम थे जिन्हें जहाँ भी गौतम मुनि कहकर उल्लिखित तो किया गया है किन्तु विद्वानों के लिये ये अत्यन्त संवेदनशील शोध एवं चिन्तन के विषय प्रस्तुत अवश्य करते हैं।

सम्पूर्ण भारत में आज भी इस वीतरागी धर्म के प्रतीकों सहित अनेक मंदिर, जैनेतर समाज द्वारा मन्दिर, गिरजाघर, मस्जिद की ही भाँति उपयोग किये जा रहे हैं। बेलगांव में तो एक मन्दिर देवगढ़ की भाँति पुलिस चौकी है। जबकि जैनियों ने किसी जैनेतर मंदिर अथवा मठ को अपने कब्जे में किया हो ऐसा इतिहास नहीं है। जैन तीर्थों की महत्ता अपनी मौलिकता के साथ जैन साहित्य और सिद्धान्तों का समर्थक करती है जो ठोस प्रमाणों पर आधारित है। यही सिद्ध करता है कि ऋग्वेद श्रमण ऋषभदेव प्रभावित एक कृति है तथा भारत का मूल, सर्वप्राचीन धर्म अिंहसा समर्थक त्याग प्रधान धर्म था जिसका प्रभाव समूची मानवता पर दिखता है। धाराशिव की गुफा और खारवेल गुफाओं के जैन साक्ष्य मिटाने का कुचक्री प्रयास चालू है। किन्तु सबको चेतावनी देती सुमेरियन तथा मोहनजोदड़ो पूर्व सभ्यता से मिल रहे प्रतीकों को सम्बल देती हुई जे. पाल. गेटी की मशहूर ‘ग्रीक वूâरोज’ की अत्यन्त रोचक सौम्य प्रतिमा ‘आर्वेयालाजी’ पत्रिका के मई—जून १९९४ अंक में प्रकाशित चित्र रूप यहाँ प्रस्तुत है जो ग्रीक से प्राप्त अत्यन्त प्राचीन धरोहर मूर्ति के रूप में संग्रहालय में सुरक्षित है। इसे (क्यूरिमो अर्थात् जिज्ञासा) तो कहा है किन्तु इसका अद्भुत साम्य ऋषभदेव की प्रतिमा से देखा जा सकता है। कायोत्सर्गी मुद्रा में खड़ी यह संगमरमर की मूर्ति न केवल दिगम्बर (नग्न) पुरुष को दर्शाती है बल्कि ऋषभदेव की जैन मूर्तियों की तरह लम्बे केशों के बावजूद उस मूर्ति के चेहरे और गुप्तांग पर बालपन की झलक है। चेहरे पर आन्तरिक निर्दोष प्रसन्नता है जो किसी भी तरह के राग को प्रर्दिशत नहीं करते। पलवें झुकी हुई, नासाग्र दृष्टि है। पुष्य वृक्ष और कंधे प्रौढ़ता के प्रतीक है। चरणों की स्थिति चार अंगुल का अंतर आगे पीछे दर्शाती है जो कदाचित संतुलन हेतु आवश्यक माना गया। माथे पर बालों की छल्लियाँ बाहुबली, गोमटेश जैसी ही है। लटे गुंथी सी सधी है जो किसी वीतरागी तपस्वी की द्योतक है। यह र्मूित अति प्राचीन मानी जा रही है और ऋषभ की ओर संकेत देती है। मैं निर्णय नहीं दे रही, मात्र साम्य की चर्चा कर रही हूँ। ग्रीक में इसे रेषभ (एक देव) भी पुकारा गया है। सारे साक्ष्य जैन धर्म की प्राचीनता का डंका बजाते हैं और मानव को अहिंसा और विश्व शांति की ओर प्रेरित करते हैं।

डा. स्नेहरानी जैन( सागर – म. प्र. )