Samavsaran

समवसरण की महिमा

श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमित विद्वषे।
यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।

Samavsaran

जो भव्य जीव हैं, जो महापुरुष संसार में रहते हुए सम्यग्दृष्टि बन करके सोलहकारण भावनाओं को भाते हैं। तीर्थंकर केवली भगवन्तों के पादमूल में या श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करते हैं, उस रूप अपनी प्रवृत्ति बना लेते हैं, वही महापुरुष तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके मनुष्य स्वर्ग में जाकर देव होते हैं और जब वहाँ से मध्यलोक में अवतीर्ण होने को होते हैं, तब छ: महीने पहले से ही रत्नों की वर्षा आदि का होना शुरू हो जाता है। तीर्थंकर भगवान का गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, दीक्षाकल्याणक इन्द्रगण मनाते हैं। तपश्चरण करते हुए तीर्थंकर भगवान जब शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों को नाश करके केवली बन जाते हैं अर्थात् केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं कि उसी क्षण एक सेकेण्ड में ही इन्द्रों के आसन कम्पित हो उठते हैं। इन्द्रगण असंख्य देव परिवार के साथ भगवान के समवसरण के दर्शन के लिए आते हैं। उसके पूर्व इन्द्र कुबेर को आज्ञा देते हैं और कुबेर आ करके इस मध्यलोक में अर्धनिमिष मात्र में भगवान का समवसरण आकाश में अधर बना देता है अर्थात् व्यवस्था यह है कि भगवान को केवलज्ञान होेते ही वे पृथ्वीतल से ५००० धनुष यानि २० हजार हाथ ऊपर आकाश में अधर पहुँच जाते हैं। उसी क्षण इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा समवसरण की रचना बन जाती है और भगवान समवसरण में गंधकुटी में चार अंगुल अधर विराजमान हो जाते हैं।

समवसरण में पृथ्वी से एक हाथ ऊपर से सीढ़ियाँ शुरू होती हैं क्योंकि समवसरण पृथ्वी का स्पर्श न करते हुए अधर ही रहता है, चारों तरफ एक-एक हाथ ऊँची, ऐसी २० हजार सीढ़ियाँ होती हैं। इनसे चढ़कर मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी भव्य जीव बाल, वृद्ध, अंधे, लूले, लंगड़े, रोगी आदि सभी अन्तर्मुहूर्त यानि ४८ मिनट में ऊपर पहुँच जाते हैं, ये समवसरण की अपनी एक विशेष महिमा है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण का विस्तार १२ योजन का था। एक योजन में ४ कोस और ८ मील होता है अत: ९६ मील का भगवान ऋषभदेव का समवसरण और भगवान महावीर स्वामी का समवसरण एक योजन का अर्थात् ८ मील का सबसे छोटा था। बीच के तीर्थंकरों के समवसरण क्रमश: घटते-घटते आए हैं। भगवान ऋषभदेव का समवसरण इन्द्रनील मणि की सुन्दर १२ योजन चौड़ी गोलाकार शिला पर और भगवान महावीर का समवसरण १ योजन विस्तृत गोलाकार शिला पर बना था। आज कल जो लोग समवसरण की रचना क्रम से सीढ़ियों के समान बनाते हैं, स्टेप बाई स्टेप, ये आगम के अनुवूâल नहीं है। समवसरण की व्यवस्था तो समतल पर ही बनती है। उसमें आठ भूमियाँ होती है। ये भूमियाँ एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक ऐसी, नहीं दिखाई जा सकती हैं। प्राचीन समवसरण आप जहाँ भी देखेंगे, वे सब समतल पर बने हुए हैं। अजमेर में शहर के मंदिर में, सुजानगढ़ में समतल पर समवसरण बना है। नया समवसरण आप देखिए अयोध्या में, प्रयाग में मेरी प्रेरणा से समतल पर बना हुआ है। ये समवसरण शास्त्रोक्त विधि से बने हुए हैं, इनमें पृथ्वी तल पर आठ भूमियाँ दिखाई गई हैं।

इस समवसरण में चार परकोटे होते हैं, पाँच वेदियाँ होती हैं। चार परकोटे और पाँच वेदियों के अन्दर अन्तराल में आठ भूमियाँ हो जाती हैं। चारों दिशा में बहुत विस्तृत वीथी, जिसे शास्त्रीय भाषा में वीथी कहा है अर्थात् बड़ी-बड़ी और बहुत चौड़ी-चौड़ी गलियाँ होती हैं। भगवान ऋषभदेव के समवसरण में २-२ कोस की बहुत चौड़ी गलियाँ थी। प्रत्येक चारों गलियों में क्रम से सबसे प्रथम बहुत ऊँचे मानस्तंभ के दर्शन होते हैं। ये मानस्तंभ भगवान के शरीर की ऊँचाई से १२ गुने ऊँचे माने गये हैं। इनमें बहुत सुन्दर हजार पहलू माने गये हैं। इनके ऊपर भगवान की प्रतिमाएं रहती हैं। इन मानस्तंभ के दर्शन से मानियों के मान गलित हो जाते हैं। मिथ्यात्व खण्ड-खण्ड हो जाता है और सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है। इसमें प्रत्येक परकोटे और वेदियों में चारों दिशाओं में एक-एक गोपुरद्वार हैं। जिनमें से पूर्व दिशा के गोपुर द्वार का नाम है विजय। दक्षिण के गोपुरद्वार का नाम है वैजयन्त। पश्चिम में जयंत और उत्तर में अपराजित ऐसे नाम वाले ४ गोपुर द्वार अर्थात् मुख्य द्वार बने हुए हैं। इन चारों के उभय पाश्र्व भाग में २-२ नाट्यशालाएं रहती हैं। जिनमें देवांगनाएं भगवान की भक्ति में विभोर होकर पुष्पांजलि बिखेरकर नृत्य करती रहती हैं। भगवान के गुणों का गान करती रहती हैं। वहाँ द्वार के दोनों ओर नवनिधियाँ, मंगल घट, धूपघट आदि स्थित रहते हैं। प्रत्येक परकोटे के द्वारों पर देवगण हाथ में दण्ड-मुद्गर आदि लेकर द्वारपाल के समान रक्षक बनकर खड़े रहते हैं।

इस समवसरण में प्रवेश करते ही चारों गली में दिव्य रत्नमयी मानस्तंभ जो कि भगवान से १२ गुने ऊँचाई से बना होता है, दिव्य इनकी आभा-प्रभा बहुत दूर तक पैâलती है, ये बहुत दूर से ही दिखने लगते हैं। केवली भगवान के प्रभाव से जहांँ उनका समवसरण रहता है, वहाँ चारों तरफ चार सौ कोस तक सुभिक्ष रहता है। दुर्भिक्ष अर्थात् अकाल नहीं पड़ता है। हिंसा, उपसर्ग आदि नहीं होते हैं। सभी जन्मजात शत्रु पशु सिंह, हिरण आदि आपस में मैत्री भाव को धारण कर लेते हैं। छहों ऋतुओं के फल-पूâल एक साथ आ जाते हैं। ये विशेषता, चमत्कार अतिशय दिखने लगता है। भगवान जब श्रीविहार करते हैं यानि आकस्मिक भगवान खड़े हुए चल पड़े तो समवसरण विघटित हो जाता है यह नि:सर्ग प्रक्रिया होती है, किसी के निवेदन से या किसी के आग्रह से नहीं होती है किन्तु ‘‘भवि भागन वश जोगे वसाय’’ भव्यों का भाग्य जिधर जोर मारता है, उधर ही अपने आप भगवान का श्रीविहार हो जाता है। आकाश में अधर भगवान चलते हैं, उनके चरण कमल के नीचे देवगण स्वर्णमयी कमलों की रचना करते हैं। वह स्वर्णिम कमल सुगंधित रहते हैं। कहते हैं सोने में सुगंधि आ गई तो सोने में सुगंधि केवल भगवान के श्रीविहार में उनके चरण के नीचे जो कमल हैं, उसी से आती है और कभी किसी सोने में सुगंधि नहीं आती है। अहिंसा धर्म के लिए सूचक दिग्विजय के समान जब भगवान का श्रीविहार होता है, तब उनके आगे-आगे धर्मचक्र चलता है जिसमें हजार आरे होते हैं। भगवान के आजू-बाजू में लक्ष्मी और सरस्वती देवी चलती हैं। सरस्वती के हाथ में वीणा, पुस्तक आदि रहती है। लक्ष्मी के हाथ में कमल रहता है। असंख्य देवगण-देवियाँ चलते हैं। इन्द्राणीगण सब भगवान के पीछे-पीछे चलते हैं। साधारण मुनि, आर्यिकाएं, मनुष्य, पशु आदि सब नीचे चलते हैं। भगवान जहाँ रुवेंâ, वहीं एक सेकेण्ड के अंदर कुबेर दिव्य समवसरण की आकाश में अधर रचना कर देता है। समवसरण में पहले पंचवर्णी सुन्दर रत्नों से निर्मित धूलिसाल परकोटा होता है। फिर चैत्यप्रासाद भूमि होती है। इसमें १-१ मंदिर के अंतराल में देवों के ५-५ प्रासाद होते हैं। बहुत सुन्दर रचना होती है। जगह-जगह बावड़ियाँ, जगह-जगह बगीचे, जगह-जगह सुन्दर-सुन्दर क्यारी आदि। ऐसे सुन्दर छोटे-छोटे पहाड़ वगैरह दिखाए जाते हैं, जिनमें लोग क्रीड़ा करते हैं। धूलिसाल परकोटे के बाद एक वेदी आती है। वेदी के बाद दूसरी भूमि आती है खातिका भूमि। यह भगवान की अवगाहना प्रमाण से चतुर्थांश प्रमाण गहरी रहती है। इसमें स्वच्छ जल भरा रहता है। इसमें हंस आदि प्राणी कलरव ध्वनि करते रहते हैं, कमल आदि इसमें खिले रहते हैं पुन: एक वेदी आ जाती है-स्वर्णिम वेदिका। परकोटे से वेदी नीची रहती है पुन: तीसरी भूमि आती है-लता भूमि। इसमें छहों ऋतुओं के बहुत सुन्दर पुष्प खिले रहते हैं। यहाँ के पुष्पों को लेकर चक्रवर्ती आदि महापुरुष आगे बढ़ते हुए भगवन्तों की पूजा करते हुए जाते हैं पुन: आगे परकोटा आता है। फिर चौथी उपवन भूमि आती है इसमें पूर्व आदि दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के उद्यान-बड़े-बड़े बगीचे रहते हैं। प्रत्येक वन में प्रत्येक बगीचे में एक-एक चैत्यवृक्ष है, जैसे पूर्व में अशोक वृक्ष है जोकि भगवान की ऊँचाई से १२ गुना ऊँचा हैद्ध उसमें चैत्यवृक्ष माना गया है, उसकी कटनी पर चारों तरफ १-१ प्रतिमाएं होती हैं, उनके आगे छोटे-छोटे मानस्तंभ होते हैं आदि। ये प्रतिमाएं पूज्य होती हैं जिनको इन्द्रगण भी नमस्कार करते हैं, मनुष्य भी नमस्कार करते हैं। ऐसी चार-चार जिनप्रतिमाएं १-१ चैत्यवृक्ष में विराजमान रहती हैं। तो इस उपवन भूमि में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन में एक-एक चैत्यवृक्ष और एक-एक चैत्यवृक्ष में ४-४ प्रतिमाएं और १-१ प्रतिमाओं के सामने १-१ मानस्तंभ आदि ये सब व्यवस्थाएं बहुत सुन्दर रहती हैं।

पाँचवी भूमि ‘ध्वजाभूमि’ है, इसमें १० प्रकार की ध्वजाएं होती हैं जिसमें सुन्दर चिन्ह बने रहते हैं। ये सब रत्नों की बहुत सुन्दर ध्वजाएं हैं, जो कि हवा के झकोरों से हिलती हैं। इनमें सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, चक्र और पद्म ये चिन्ह बने हुए हैं। इन दश चिन्हों से चिन्हित महाध्वजाएं और उनके आश्रित १०८-१०८ लघु ध्वजाएं होती हैं। सब मिला करके चार लाख सत्तर हजार आठ सौ अस्सी ध्वजाएं इस भूमि में हो जाती हैं।

आगे छठी कल्पवृक्ष भूमि है, जिसे कल्पभूमि भी कहते हैं। इसमें भूषणांग आदि नाम के दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। दस जाति के १०-१० कल्पवृक्ष रहते हैं। जैसे भोगभूमियों में कल्पवृक्ष माने हैं, वैसे ही ये पृथ्वीकायिक हैं, वनस्पतिकायिक नहीं है। इसमें वैसे-वैसे ही फल को देने वाले कल्पवृक्ष रहते हैं। इस भूमि में चारों दिशाओं में क्रम से नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात ऐसे एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष भी हैं, जिन पर चार-चार सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान हैं अत: सिद्धार्थवृक्ष इनका नाम सार्थक है। मेरी प्रेरणा से त्रिलोकपुर में एक पारिजात सिद्धार्थवृक्ष बनवाया गया है, जिसमें चारो ओर सिद्ध प्रतिमाएं विराजमान की हैं जिसका दर्शन करने लोग अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुर में पहुँच जाते हैं। हमें तो उसका दर्शन कर बड़ा आनंद आता है। महावीर जी में शांतिवीर नगर में मेरी प्रेरणा से एक मंदार सिद्धार्थ वृक्ष विराजमान किया गया है। इसमें भी चार सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान हैं। लोग दर्शन करके अपने मनोरथों को सफल किया करते हैं।

सातवीं भूमि भवनभूमि है। इस भवनभूमि में बहुत सुन्दर-सुन्दर भवन बने हुए हैं। ये सब कुबेर के द्वारा निर्मित हैं। इसके पाश्र्वभागों में नव-नव स्तूप बने हैं। नव-नव स्तूपों में अर्हंत और सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान हैं। ये बहुत सुन्दर स्तूप हैं, इसका वर्णन आप तिलोयपण्णत्ति, महापुराण आदि ग्रंथों में पढ़ें, बहुत सुन्दर रचना है। इन प्रतिमाओं को महामुनि चारणऋद्धिधारी आदि भी नमस्कार करते हैं, इनकी वंदना करते हैं।

आठवीं भूमि का नाम है श्रीमण्डपभूमि। इस श्रीमण्डपभूमि में १६ दिवाल हैं। बीच में १२ कोठे अर्थात् कक्ष हैं। प्रथम कक्ष में गणधर आदि महामुनि बैठते हैं एवं सभी प्रकार के मुनि बैठते हैं। दूसरे कक्ष में कल्पवासिनी देवियाँ रहती हैं। तीसरे में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ रहती हैं। चौथे में ज्योतिर्वासी देवियाँ, पाँचवें में व्यंतर देवियाँ, छठे में भवनवासिनी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि मनुष्यगण और बारहवें में सिंह आदि तिर्यंच बैठते हैं। इन १२ सभाओं में क्रम से ये सब बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि को सुन करके धर्मामृत का पान करके अपने जीवन को धन्य करते हैं। इन बारह कोठों में-कक्षों में असंख्यातों भव्य जीव बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं। असंख्यात वैâसे हुए तो मैं आपको बताऊँ, यहाँ देव-देवियों की संख्या असंख्यात मानी है। समवसरण में असंख्यातों देव-देवी आ जाते हैं और ये भगवान के ८ मील के समवसरण में आठवीं भूमि में एक कक्ष में समा जाते हैं। ऐसी एक विशेषशक्ति विशेष महिमा, विशेष चमत्कार, समवसरण का है। मनुष्य तो संख्यात ही होते हैं। सिंह आदि तिर्यंच भी संख्यात हैं। मुनि भी संख्यात ही बैठते हैं। आर्यिकाएँ-श्राविकाएँ भी संख्यात ही रहती हैं। समवसरण में जो प्राणी बैठते हैं, उनको न तो रोग है न शोक है, न जन्म है न मरण है, न उपद्रव है न कोई बाधाएं हैं, वे सब निराबाध होकर एक-दूसरे का स्पर्श न करते हुए, एक-दूसरे को बाधा न पहुँचाते हुए सुख शांतिपूर्वक बैठते हैं। यह भगवान की भक्ति का एक महात्म्य, उनके समवसरण का महात्म्य-चमत्कार समझना चाहिए।

अब मैं आपको अक्षीण ऋद्धि के बारे में बताती हूँ-अक्षीण ऋद्धि के दो भेद हैं-महानस और महालय। जिस जगह अक्षीण महालय ऋद्धि के धारी मुनि बैठ जाएँ तो वहाँ पर भले ही वह कक्ष छोटा ही क्यों न हो, दस पुâट का ही क्यों न हो, उसमें असंख्यातों देव-देवी आ करके बैठ करके उनका प्रवचन सुन लेंगे। यह विशेषता जब एक ऋद्धिधारी मुनि में आ सकती है तो भगवान के समवसरण में ऐसी बड़ी विशेषता आ जाए, यह कोई बहुत बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसे मुनि जिनको अक्षीण महालय ऋद्धि हो जाती है, तो चक्रवर्ती का कटक भी पूरा वहाँ आ जाये, उनके सानिध्य में बैठ जाए और प्रवचन सुन ले लेकिन कोई बाधा नहीं आती है। यह तो अक्षीण महालय ऋद्धि हुई। अक्षीण महानस ऋद्धि का प्रभाव है कि जिस घर में उनका आहार हो जाये, भले ही एक छोटे से पात्र में एक किलो की ही खीर बनाई गई हो, लेकिन उस खीर से मुनि का आहार करा देने के बाद वह खीर अक्षय हो जाती है, उस दिन चक्रवर्ती के पूरे कटक को भी जिमा दे, सारे गाँव को, कितने ही लोगों को जिमा दे, हजारों, लाखों, करोड़ों लोगों को जिमाते चले जायें, लेकिन वह खीर कम नहीं पड़ेगी, यह अक्षीण महानस ऋद्धि का प्रभाव है। ये ऋद्धियाँ चतुर्थकाल में प्रकट होती थीं, आज तो नहीं दिखती हैं। फिर भी में आपको बताऊँ कि जो विशेष तपस्वी और भावलिंगी निर्दोषचारित्र का पालन करने वाले चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज महासाधु हुए हैं, उनके आहार होने में, आहार के बाद में बहुत बार ऐसा देखा जाता है कि भोजन खूब वृद्धिंगत हो गया। तमाम लोगों ने जीम लिया, फिर भी घटा नहीं। ऐसे बहुत से दृश्य आज भी देखे जाते हैं। मैंने स्वयं भी कई बार ऐसे अनुभव किए हैं, देखे हैं, सुने हैं। सन् १९९३ में अयोध्या की तरफ मेरा संघ सहित विहार हो रहा था। फतेहपुर नाम के गाँव में हम लोग ठहरे हुए थे। धर्मशाला में हमारे संघ के संचालक, प्रद्युम्न कुमार शाह (टिवैâतनगर) ने खीर बनाई थी, थोड़ी सी खीर थी। सहज मैं उधर से निकली, वे बोले- माताजी खीर तो थोड़ी ही बन रही है। आज जीमने वाले बहुत लोग आ रहे हैं, मुझे दूध ज्यादा नहीं मिल पाया है, क्या करूँ, मैं चाहता हूँ सबको खीर मिल जाये। मैंने कहा-चिंता न करो, सबको खीर मिल जायेगी। फिर क्या हुआ, बाद में वे आकर बोले-माताजी! आज मैंने कितने लोगों को खीर खिला दी लेकिन खीर कम नहीं हुई, घटी नहीं शाम तक भी वह खीर उन लोगों ने खाई। तो ऐसा कभी-कभी देखने में आता है, सुनने में तो बहुत बार आ जाता है। भगवान की महिमा का तो वर्णन इन्द्र भी नहीं कर सकते। गणधर देव भी नहीं कर सकते तो हम और आप जैसे क्या कर पायेंगे, उनकी महिमा तो अचिन्त्य है। आठ भूमियाँ जो मैंने बताई, उनके बीच में चार परकोटे हैं। पहला परकोटा धूलिसाल है, जो पंचरंगी है, दूसरा परकोटा स्वर्णिम है, तीसरा परकोटा बीच में आता है, जो रजतमयी है और चौथा परकोटा जो श्रीमण्डप भूमि के पहले आता है, वह परकोटा स्फटिक मणि का बना हुआ है और उसमें जो दीवालें हैं, वह भी स्फटिक मणि से बनी हुई हैं, जो कि १२ कक्ष को विभक्त करने वाली हैं। इस प्रकार समवसरण में सब एक-दूसरे को दिखते भी रहते हैं। यह वहाँ का बहुत सुन्दर दृश्य रहता है। वहाँ न जाने कितने ऐसे स्तूप हैं, तीन लोक के स्तूप, कहीं सर्वार्थसिद्धि स्तूप, कहीं सिद्धशिला स्तूप, जहाँ भगवान की छाया दिख जाती है। सर्वार्थसिद्धि स्तूप में सर्वार्थसिद्धि के देव दिख रहे हैं। तीन लोक के स्तूप में तीन लोक की रचना दिख रही है। मध्यलोक स्तूप, जिसमें असंख्यात द्वीप-समुद्र दिख रहे हैं। देखा जाये तो ये सब चीजें वहाँ कुबेर इतनी सुन्दर बनाता है और इस प्रकार से बनाता है कि तीन लोक की सम्पत्ति समझ लीजिए, वहाँ पर लाकर सारी एकत्रित कर देता है। आचार्यों ने बताया है कि अगर वे कुबेर भगवान की अनुपस्थिति में और कहीं ऐसी रचना बनाना चाहे, तो नहीं बना सकता है। मानस्तंभ की एक विशेष महिमा है। जगह-जगह बहुत से मानस्तंभ बनते हैं लेकिन वे सभी मानस्तंभ मान को गलित नहीं कर सकते। श्री वादिराजसूरि ने एकीभाव स्तोत्र में कहा है-

पाषाणात्मा तदितरसमा, केवलम् रत्नमूर्ति:।
मानस्तंभो भवति च परस्तादृशोरत्नवर्ग:।।

हे भगवन्! पाषाण से बने हुए, रत्नों से बने हुए, स्वर्ण से बने हुए बहुत से मानस्तंभ उस प्रकार की महिमा को नहीं प्राप्त कर सकते, जो आपके सानिध्य में अर्थात् समवसरण में मानस्तंभ की महिमा गाई जाती है, देखी जाती है और लोग अनुभव करते हैं। मान गलित करके भव्यात्मा सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में मानस्तंभ का दर्शन करते ही गौतम स्वामी का मान गलित हो गया और वे सम्यग्दृष्टि बन गये, भगवान के प्रथम गणधर बन गये। आज जो भी जैन ग्रंथ उपलब्ध हैं, सब उन्हीं के उपकार का फल है। इस प्रकार से मैंने समवसरण के बारे में आपको बहुत ही संक्षेप में बताया। अब आगे समवसरण में क्या होता है। आठवीं भूमि के बाद तीन कटनी मानी गई हैं। १६ सीढ़ी ऊपर चढ़कर पहली कटनी है। ८ सीढ़ी चढ़कर दूसरी कटनी है, तीसरी कटनी भी ८ सीढ़ी चढ़कर है। पहली कटनी पर तो सर्वाण्हयक्ष धर्मचक्र को मस्तक पर लिए हैं और मंगल द्रव्य सामग्री वगैरह बहुत सी चीजें रखी हैं। दूसरी कटनी पर आठ महाध्वजाएं, मंगल द्रव्य आदिक हैं। तीसरी कटनी पर भगवान की बहुत सुन्दर गंधकुटी बनी है। गंधकुटी, इसका नाम इसलिए सार्थक है कि इसमें ऐसी दिव्यगंध है जो कहीं नहीं है। इसमें तमाम फूलमालाएँ, रत्नों की मालाएं लटक रही हैं। इस पर सहस्रों शिखर बने हुए हैं। भगवान से ड्योढ़ी गंधकुटी होती है, जिसमें भगवान पद्मासन में विराजमान रहते हैं, वहाँ ८ महाप्रातिहार्य रहते हैं। अशोक वृक्ष हैं, देव पुष्पवृष्टि कर रहे हैं, दिव्यध्वनि, भगवान के ऊपर ६४ चंवर यक्षगण ढोर रहे हैं। चारों तरफ से सुन्दर बढ़िया सिंहासन है। सिंहासन पर सुन्दर कमल रखा हुआ है, उस पर भगवान अधर बैठते हैं। देव दुदुंभी-साढ़े बारह करोड़ प्रकार के बाजे बजते रहते हैं। भामंडल-भगवान के पीछे प्रभामण्डल ऐसा बन जाता है, जिसमें लोग अपने सात-सात भव देख लेते हैं। तीन पिछले, तीन अगले और एक वर्तमान का। बहुत सुन्दर तीन छत्र भगवान के ऊपर लगे रहते हैं।

ये आठ प्रातिहार्य भगवान के पास होते हैं, अष्ट मंगल आदि रखे रहते हैं। भगवान गंधकुटी पर ४ अंगुल अधर रहते हैं। इतना समवसरण का वैभव आप कल्पद्रुम विधान में देख सकते हैं। उसमें समवसरण के वैभव की पूजा बहुत सुन्दर है। समवसरण का सारा वर्णन आपको बहुत अच्छा लगेगा। गुजरात में विहार करते हुए अहमदाबाद के एक महानुभाव ने मेरे से प्रश्न किया कि माताजी! आप जब कल्पद्रुम विधान बना रहीं थी, तो कहाँ बैठी थीं? मैंने कहा-भावों से तो मैं समवसरण में बैठी थी। सचमुच में जब मैं विधान लिख रही थी, उस समय इतना आनंद आता था, ऐसा लगता था कि मैं साक्षात् समवसरण में बैठी हूँ और समवसरण के सारे दृश्य मुझे दिख रहे हैं। आगम के परिप्रेक्ष्य में यह जिनवाणी साधुओं का तीसरा नेत्र माना गया है। ‘आगम चक्खू साहू’ आगमरूपी नेत्र से समवसरण दिख जाता है। आप भी देख सकते हैं। समवसरण विधान कीजिए, कल्पद्रुम विधान कीजिए, आपको बहुत आनंद आयेगा। तिलोयपण्णत्ति, महापुराण, शांतिपुराण आदि ग्रंथों के स्वाध्याय से आपको समवसरण का सारा विवरण मालूम पड़ेगा। मैंने तो आपको संक्षेप में बताया है। भगवान जब गंधकुटी में विराजमान होते हैं, शासन देव-देवी भी पास में रहते हैं। भगवान ऋषभदेव के शासन देव-देवी गोमुखयक्ष और चव्रेश्वरी देवी हैं, भगवान महावीर के मातंग यक्ष, सिद्धायिनी देवी हैं। भगवान पाश्र्वनाथ के धरणेन्द्र यक्ष, पद्मावती देवी हैं आदि। ये सब शासन देव-देवी सम्यग्दृष्टि हैं। आज जो शासन देव-देवी की आराधना पूजा आदि का निषेध करते हैं, उन्हें आगम के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए कि इन्हें अघ्र्य चढ़ाने का, इनके आह्वान का विधान पूज्यपाद जैसे आचार्यों ने, बड़े-बड़े आचार्यों ने संस्कृत के पूजा ग्रंथों में लिखा है।

समवसरण की महिमा विशेष है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण के बारे में मैं आपको बताऊँ-भरत चक्रवर्ती मुख्य श्रोता थे। भगवान के तृतीय पुत्र वृषभसेन प्रमुख गणधर थे और उनकी पुत्री ब्राह्मी प्रथम गणिनी आर्यिका के रूप में विराजमान थीं। चक्रवर्ती भरत के विवर्धन कुमार आदि ९२३ पुत्र जन्म से गूंगे थे लेकिन चक्रवर्ती भरत चिन्तन किया करते थे-अरे! मुझ जैसे चक्रवर्ती के पुत्र गूंगे, उन्हें आश्चर्य होता था, कष्ट भी होता था लेकिन वे सभी पुत्र समवसरण में पहुँचते ही बोल पड़े, भगवान की स्तुति करने लग गये पुन: विरक्तमना हो करके उन्होंने वहीं जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और तपश्चरण करके उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लिया था। भरतचक्रवर्ती ने प्रश्न किया-भगवन्! मेरे पुत्र होकर के गूंगे, आपके पोते होकर के गूंगे ऐसे उत्तम इक्ष्वाकुवंश में जन्मे और गूंगे, क्यों तो ये गूंगे थे और वैâसे बोल पड़े? यह तद्भवमोक्षगामी महामना इनका इतिहास मैं सुनना चाहता हूँ। भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, वृषभसेन गणधर ने बताया-चक्रवर्ती भरत! सुनो, अनादिकाल से ये नित्य निगोद में थे। नित्य निगोद से निकले, स्थावरयोनि में आये। स्थावरयोनि में केवल कायबल, स्पर्शन इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण ही होते हैं। तो वहाँ इनको वचन बल मिला ही नहीं, जिह्वा ही नहीं मिली। फिर ये इस मनुष्ययोनि में आये तो गूंगे ही रहे, बोलना ही नहीं समझे और यह समवसरण का प्रभाव, यह महिमा है कि यहाँ आते ही बोल पड़े। यह तद्भवमोक्षगामी हैं, इसी भव से मोक्षप्राप्त करेंगे। चक्रवर्ती भरत यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। समवसरण की महिमा के बारे में क्या-क्या बताया जाये। आप जैन ग्रंथों का स्वाध्याय करें तब आपको पता चलेगा, एक मेंढक पहले राजगृही का सेठ था, पर वह पत्नी के मोह में विशेषरूप से लगा हुआ था। उसका चिन्तन, उसका उपयोग पत्नी की तरफ था अत: मर करके अपनी बावड़ी में मेढ़क हो गया। जब सेठानी पानी भरने जाती तो उस पर खुद पड़ता अत: एक दिन सेठानी ने गुरु से प्रश्न किया, तब गुरु ने बताया कि ये मेढ़क तुम्हारे पति का जीव है। तब सेठानी ने उसको सम्बोधा, जिससे उसको जातिस्मरण हो गया। वह मेढ़क एक दिन भगवान महावीर स्वामी के समवसरण के दर्शन के लिए कमल पांखुड़ी मुख में दबाकर चल पड़ा लेकिन हाथी के पैर के नीचे दबकर मर गया और मर करके उसी क्षण स्वर्ग में देव हो गया और वहाँ से आ करके भगवान की भक्ति करने लगा। कहाँ तो सेठ का जीव, अपनी पत्नी के ध्यान से-आर्तध्यान से मरकर के मेढ़क हुआ और कहाँ भगवान की भक्ति के भाव से-समवसरण की वंदना के भाव से मर करके स्वर्ग में देव हो गया! भगवान की भक्ति की ऐसी अचिन्त्य महिमा है!

मैं तो आप सभी को यही प्रेरणा दूँगी कि आप समवसरण में जो चार परकोटे हैं, पाँच वेदियाँ हैं, उनके अंतराल में आठ भूमियाँ हैं, ३ कटनी हैं, अंतिम कटनी पर भगवान विराजमान हैं आदि इस प्रकार से समवसरण का वर्णन जो आपने सुना है, पढ़ा है, बार-बार इसे सुनें और पढ़ें, एक बार सुनने से, पढ़ने से नहीं समझ में आयेगा। बार-बार सुनें या बार-बार आप पढ़ें, पढ़ करके चिन्तन करते हुए कभी कल्पद्रुम विधान का आनंद लें, समवसरण का विधान करें और साथ ही आँख बंद करके पद्मासन मुद्रा में बैठ करके कभी इस समवसरण का ध्यान करें। भगवान के समवसरण का ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। भगवान के समवसरण का ध्यान करते-करते एक-एक भूमि का, एक-एक वेदी का, एक-एक परकोटे आदि का चिंतन करते-करते क्रम से आप समवसरण के ध्यान में निमग्न हो जायें पुन: आप एक क्षण के लिए चिंतन करें कि मैंने ध्यान के बल से घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है और मैं स्वयं समवसरण में गंधकुटी में विराजमान हूँ। मैं स्वयं अनन्त चतुष्टय स्वरूप हूँ। चूँकि समवसरण की विभूति तो बाह्य विभूति है, अन्तरंग विभूति क्या है? अनन्तगुणों की प्राप्ति, उसमें अनन्त चतुष्टय नाम से चार गुण विशेष हैं-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य ये अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं। ये अनन्त चतुष्टय अन्तरंग लक्ष्मी है, अन्तरंग विभूति हैं, अन्तरंग गुण ऐसे अनन्त प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार से मैं अनन्त चतुष्टय स्वरूप हूँ-अनन्त ज्ञान स्वरूपोऽहं, अनन्तदर्शनस्वरूपोऽहं, अनन्त सौख्य स्वरूपोऽहं, अनन्त वीर्य स्वरूपोऽहं, तीर्थंकरोऽहं तीर्थंकरोऽहं तीर्थंकरोऽहं ऐसा चिन्तन करते हुए आप स्वयं समवसरणस्वरूप ऐसे वैभव के मध्य गंधकुटी में विराजमान होकर स्वयं अपने आप को अर्हंत अवस्था में चिन्तन करें तो यह रूपस्थ ध्यान, भगवान के समवसरण का ध्यान, स्वयं के समवसरण को प्राप्त कराने वाला हो, स्वयं के अनंत गुणों को प्रकट कराने वाला, अनन्त गुणों की लक्ष्मी-अंतरंग लक्ष्मी और बहिरंग लक्ष्मी से अपनी आत्मा को विभूषित करने वाला, यह रूपस्थ ध्यान आपके लिए मंगलकारी हो, यही आप सबके लिए बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद।