दशलक्षण व्रत विधि एवं कथा

दशलाक्षणिकव्रते भाद्रपदमासे शुक्ले श्रीपंचमीदिने प्रोषध: कार्य:, सर्वगृहारम्भं परित्यज्य जिनालये गत्वा पूजार्चनादिकञ्च कार्यम्। चतुर्विंशतिकां प्रतिमां समारोप्य जिनास्पदे दशलाक्षणिकं यन्त्रं तदग्रे ध्रियते, ततश्च स्नपनं कुर्यात्, भव्य: मोक्षाभिलाषी अष्टधापूजनद्रव्यै: जिनं पूजयेत्। पंचमीदिनमारभ्य चतुर्दशीपर्यन्तं व्रतं कार्यम्, ब्रह्मचर्यविधिना स्थातव्यम्। इदं व्रतं दशवर्षपर्यन्तं करणीयम्, ततश्चोद्यापनं कुर्यात्। अथवा दशोपवासा: कार्या:। अथवा पंचमीचतुर्दश्योरुपवासद्वयं शेषमेकाशनमिति केषाञ्चिन्मतम्, तत्तु शक्तिहीनतयाङ्गीकृतं न तु परमो मार्ग:।

अर्थ-दशलक्षण व्रत भाद्रपद मास में शुक्लपक्ष की पंचमी से आरंभ किया जाता है। पंचमी तिथि को प्रोषध करना चाहिए तथा समस्त गृहारम्भ का त्यागकर जिनमंदिर में जाकर, पूजन-अर्चन, अभिषेक आदि धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिए। अभिषेक के लिए चौबीस भगवान की प्रतिमाओं को स्थापन कर उनके आगे दशलक्षण यंत्र स्थापित करना चाहिए। पश्चात् अभिषेक क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए। मोक्षाभिलाषी भव्य अष्ट द्रव्यों से भगवान जिनेन्द्र का पूजन करता है। यह व्रत भादों सुदी पंचमी से भादों सुदी चतुर्दशी तक किया जाता है। दसों दिन ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है।

इस व्रत को दस वर्ष तक पालन किया जाता है, पश्चात् उद्यापन कर दिया जाता है। इस व्रत की उत्कृष्ट विधि तो यही है कि दस उपवास लगातार अर्थात् पंचमी से लेकर चतुर्दशी तक दस उपवास कर्नाा चाहिए अथवा पंचमी और चतुर्दशी का उपवास तथा शेष दिनों में एकाशन करना चाहिए, परन्तु यह व्रत विधि शक्तिहीनों के लिए बतायी गई है, यह परममार्ग नहीं है।

विवेचन-दशलक्षण व्रत भादों, माघ और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से चतुर्दशी तक किया जाता है। परन्तु प्रचलित रूप में केवल भाद्रपद मास ही ग्रहण किया गया है। दशलक्षण व्रत के दस दिनों में त्रिकाल सामायिक, वंदना और प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को सम्पन्न करना चाहिए। व्रतारंभ के दिन से लेकर व्रत समाप्ति तक जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के साथ दशलक्षण यंत्र का भी अभिषेक किया जाता है। नित्य नैमित्तिक पूजाओं के अनन्तर दशलक्षण पूजा की जाती है। पंचमी, षष्ठी, सप्तमी आदि दश तिथियों में क्रम से प्रत्येक तिथि को दशों धर्म के मंत्र का क्रम से जाप करना चाहिए। समस्त दिन स्वाध्याय, पूजन, सामायिक आदि कार्यों में व्यतीत करे, रात्रि जागरण करे और समस्त विकथाओं का त्याग कर आत्मचिंतन में लीन रहे। दसों दिन यथाशक्ति प्रोषध, बेला, तेला, एकाशन, ऊनोदर एवं रसपरित्याग करने चाहिए। स्वादिष्ट भोजन का त्याग करे तथा स्वच्छ और सादे वस्त्र धारण करने चाहिए। इस व्रत का पालन दस वर्ष तक किया जाता है।

कथा-धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में विशाल नाम का एक नगर है। वहाँ का प्रियंकर नाम का राजा अत्यंत नीतिनिपुण और प्रजावत्सल था। रानी का नाम प्रियंकरा था, और इसके गर्भ से उत्पन्न हुई कन्या का नाम मृगांकलेखा था।

इसी राजा के मंत्री का नाम मतिशेखर था। इस मंत्री के उसकी शशिप्रभा स्त्री के गर्भ से कमलसेना नाम की कन्या थी।

इसी नगर के गुणशेखर नामक एक सेठ के यहाँ उसकी शीलप्रभा नाम की सेठानी से एक कन्या मदनवेगा नाम की हुई थी और लक्षभट नामक ब्राह्मण के घर चन्द्रभागा भार्या से रोहिणी नाम की कन्या हुई थी।

ये चारों (मृगांकलेखा, कमलसेना, मदनवेगा और रोहिणी) कन्याएं अत्यंत रूपवान, गुणवान तथा बुद्धिमान थी। वे सदैव धर्माचरण में सावधान रहती थीं। एक समय बसंत ऋतु में ये चारों कन्याएँ अपने-अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वनक्रीड़ा के लिए निकलीं, सो भ्रमण करती-करती कुछ दूर निकल गईं। जबकि ये वन की स्वाभाविक शोभा को देखकर आल्हादित हो रही थीं कि उसी समय उनकी दृष्टि उस वन में विराजमान श्री महामुनिराज पर पड़ी और वे विनयपूर्वक उनको नमस्कार करके वहाँ बैठ गर्इं और धर्मोपदेश सुनने लगीं। पश्चात् मुनि तथा श्रावकों का द्विविध प्रकार उपदेश सुनकर वे चारों कन्याएँ हाथ जोड़कर पूछने लगीं-हे नाथ! यह तो हमने सुना, अब दया करके हमको ऐसा मार्ग बताइये कि जिससे इस पराधीन स्त्री पर्याय तथा जन्म-मरणादि के दु:खों से छुटकारा मिले। तब श्री गुरु बोले-बालिकाओं! सुनो-

यह जीव अनादिकाल से मोहभाव को प्राप्त हुए विपरीत आचरण करके ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को बांधता है और फिर पराधीन हुवा संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगता है। सुख यथार्थ में कहीं बाहर से नहीं आता है, न कोई भिन्न पदार्थ ही हैं, किन्तु वह (सुख) अपने निकट ही आत्मा में, अपने ही आत्मा का स्वभाव है, सो जब तीव्र उदय होता है, उस समय यह जीव अपने उत्तमक्षमादि गुणों को (जो यथार्थ में सुख-शांति स्वरूप ही है) भूलकर इनसे विपरीत क्रोधादि भावों को प्राप्त होता है और इस प्रकार स्व पर की हिंसा करता है। सो कदाचित् यह अपने स्वरूप का विचार करके अपने चित्त को उत्तमक्षमादि गुणों से रंजित करे, तो नि:संदेह इस भव और परभव में सुख भोगकर परमपद (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। स्त्री पर्याय से छुटना तो कठिन ही क्या है? इसलिए पुत्रियों! तुम मन, वचन, काय से इस उत्तम दशलक्षण रूप धर्म को धारण करके यथाशक्ति व्रत पालो, तो नि:संदेह मनवांछित (उत्तम) फल पाओगी।

भगवान ने ‘उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्यागािंकचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म:’ अर्थात् उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य, इस प्रकार ये धर्म के दश लक्षण बताये हैं। ये वास्तव में आत्मा के ही निजभाव है। जो क्रोधादि से ढक रहे हैं।

उत्तम क्षमा, क्रोध के उपशम या क्षय होने से प्रगट होती है। इसी प्रकार उत्तम मार्दव मान के उपशम, क्षयोपशम व क्षय से होता है। उत्तम आर्जव, माया के नाश होने से होता है। सत्य, मिथ्यात्व (मोह) के नाश से होता है। शौच, लोभ के नाश से होता है। संयम, विषयानुराग कम व नाश होने से होता है। तप, इच्छाओं को रोकने (मन वश करने) से होता है। त्याग, ममत्व (राग) भाव कम या नाश करने से होता है। आकिंचन्य, निस्पृहता से उत्पन्न होता है और ब्रह्मचर्य काम विकार तथा उनके कारणों को छोड़ने से उत्पन्न होता है। इस प्रकार ये दशों धर्म अपने प्रति घातक दोषों के क्षय होने से प्रगट हो जाते हैं।

(१) क्षमावान् प्राणी कदापि किसी जीव से वैर विरोध नहीं करता है और न किसी को बुरा-भला कहता है। किन्तुु दूसरों के द्वारा अपने ऊपर लगाये हुए दोषों को सुनकर अथवा आये हुए उपद्रवों पर भी विचलित चित्त नहीं होता है और उन दु:ख देने वाले जीवों पर उल्टा करुणाभाव करके क्षमा देता है तथा अपने द्वारा किये हुए अपराधों की क्षमा मांग लेता है। इस प्रकार यह क्षमावान पुरुष सदा निर्बैर हुआ, अपना जीवन सुख-शांतिमय बनाता है।

(२) इसी प्रकार मार्दव धर्मधारी नर के क्षमा तो होती है किन्तु जाति, कुल, ऐश्वर्य, विद्या, तप और रूपादि समस्त प्रकार के मदों के नाश होने से विनयभाव प्रगट होता है अर्थात् वह प्राणी अपने से बड़ों में भक्ति व विनयभाव रखता है और छोटे में करुणा व नम्रता रखता है, सबसे यथायोग्य मिष्ट वचन बोलता है और कभी भी किसी से कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं करता है। इसी से यह मिष्टभाषी विनयी पुरुष सर्वप्रिय होता है और किसी से द्वेष न होने से सानंद जीवन यात्रा करता है।

(३) आर्जव धर्मधारी पुरुष, क्षमा और मार्दव धर्मपूर्वक ही आर्जवधर्म (सरलता) को धारण करता है। इसके जो कुछ बात मन में होती है, सो ही वचन से कहता है और कही हुई बात को पूरी करता है। इस प्रकार यह सरल परिणाम पुरूष निष्कपट होने के कारण निश्चिंत तथा सुखी होता है।

(४) सत्यवान पुरुष सदैव जो बात जैसी है, अथवा वह जैसी उसे जानता समझता है, वैसी ही कहता है, अन्यथा नहीं कहता, कहे हुए वचनों को नहीं बदलता और न कभी किसी को हानि व दु:ख पहुँचाने वाले वचन बोलता है। वह तो सदैव अपने वचनों पर दृढ़ रहता है। इसके उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव ये तीनों धर्म अवश्य ही होते हैं। यह पुरुष अन्यथा प्रलापी न होने से विश्वासपात्र होता है और संसार में सन्मान व सुख को प्राप्त होता है।

(५) शौचवान नर उपर्युक्त चारों धर्मों को पालता हुआ अपनी आत्मा को लोभ से बचाता है और जो पदार्थ न्यायपूर्वक उद्योग करने से उसके क्षयोपशम के अनुसार उसे प्राप्त होते हैं वह उसमें संतोष करता है और कभी स्वप्न में भी परधन हरण करने के भाव इनके नहीं होते हैं। यदि अशुभ कर्म के उदय से इसे किसी प्रकार का भी घाटा हो जाये अथवा और किसी प्रकार से द्रव्य चला जाये, तो भी यह दुखी नहीं होता और अपने कर्मोें का विपाक समझकर धैर्य धारण करता है, परन्तु अपने घाटे की पूर्ति के लिए कभी किसी दूसरे को हानि पहुँचाने की चेष्टा नहीं करता है। इसको तृष्णा न होने के कारण सदा आनंद में रहता है और इसलिए कभी किसी से ठगाया भी नहीं जाता है।

(६) संयमी पुरुष भी उक्त पाँचों व्रतों को पालता हुआ अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से रोकता है। ऐसी अवस्था में इसे कोई पदार्थ इष्ट व अनिष्ट प्रतीत नहीं होते हैं। क्योंकि विषयानुरागता के ही कारण अपने ग्रहण योग्य पदार्थ इष्ट और आरोचक व ग्रहण न करने योग्य अनिष्ट माने जाते हैं, सो इष्टानिष्ट कल्पना न रहने के कारण उनमें हेयोपादेय कल्पना भी नहीं रहती है, तब समभाव होता है। इसी से यह समरसी आनंद को प्राप्त करता है।

(७) तपस्वी पुरुष इन्द्रियों को वश करता हुआ भी मन को पूर्ण रीति से वश करता है और उसे यत्र तत्र दौड़ने से रोकता है। किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होने देता है। जब इच्छा ही नहीं रहती तो आकुलता किस बात की? यह अपने ऊपर आने वाले सब प्रकार के उपसर्गों को धीरतापूर्वक सहन करने में उद्यमी व समर्थ होता है। वास्तव में ऐसा कोई भी सुर-नर व पशु संसार में नहीं जन्मा है, जो इस परम तपस्वी को उसके ध्यान से विंâचित्मात्र भी डिगा सके। इसलिए ही इस महापुरुष के एकाग्रचिंतानिरोध रूप धर्म व शुक्लध्यान होता है जिससे यह अनादि से लगे हुए कठिन कर्मों का अल्प समय में नाश करके सच्चे सुखों का अनुभव करता है।

(८) त्यागी पुरुष के उक्त सातों व्रत तो होते ही हैं किन्तु उस पुरुष का आत्मा बहुत उदार हो जाता है। यह अपने आत्मा से रागद्वेषादि भावों को दूर करने तथा स्वपर उपकार के निमित्त आहारादि चारों दान देता है और दान देकर अपने आपको धन्य व स्वसम्पत्ति को सफल हुई समझता है। यह कदापि स्वप्न में भी अपनी ख्याति व यश नहीं चाहता और न दान देकर उसे स्मरण रखता है अथवा न कभी किसी पर प्रगट ही करता है। वास्तव में दान देकर भूल जाना ही दानी का स्वभाव होता है। इससे यह पुरुष सदा प्रसन्नचित्त रहता है और मृत्यु का समय उपस्थित होने पर भी निराकुल रहता है। इसका चित्त धनादि में पंâसकर आर्त-रौद्ररूप कभी नहीं होता है और उसका आत्मा सद्गति को प्राप्त होता है।

(९) आविंâचन्य-बाह्य-आभ्यंतर समस्त प्रकार के परिग्रहों से ममत्व भावों को छोड़ देने वाला पुरुष सदैव निर्भय रहता है, उसे न कुछ सम्हालना और न रक्षा करनी पड़ती है। यहाँ तक कि वह अपने शरीर तक से निस्पृह रहता है, तब ऐसे महापुरुष को कौन पदार्थ आकुलित कर सकता है, क्योंकि वह अपनी आत्मा के सिवाय समस्त परभावों या विभावों को हेय अर्थात् त्याज्य समझता है। इसी से कुछ भी ममत्व शेष नहीं रह जाता और समय-समय असंख्यात व अनन्तगुणी कर्मोेंं की निर्जरा होती रहती है इसी से यह सुखी रहता है।

(१०) ब्रह्मचर्यधारी महाबलवान योद्धा सदैव उक्त नव व्रतों को धारण करता हुआ, निरंतर अपनी आत्मा में ही रमण करता है वह बाह्य स्त्री आदि से विरक्त होता है उसकी दृष्टि में सब जीव संसार में एक समान प्रतीत होते हैं और स्त्री, पुरुष व नपुंसकादि का भेद कर्म की उपाधि जानता है। यह सोचता है कि यह देह हाड, मांस, मल, मूत्र, रुधिर, पीव आदि रागी जीवों को सुहावना सा लगता है। यदि वह चाम की चादर हटा दी जाये अथवा वृद्धावस्था आ जाये तो फिर इसकी ओर देखने को भी जी न चाहे इत्यादि, ऐसे घृणित शरीर में क्रीड़ा करना क्या है? मानो विष्टा (मल) के क्रीड़ावत् उसमें अपने आपको पंâसाकर चतुर्गति के दु:खों में डालता है। इस प्रकार यह सुभट काम के दुर्जय किले को तोड़कर अपने अनंत सुखमई आत्मा में ही विहार करता है। ऐसे महापुरुषों का आदर सब जगह होता है और तब कोई भी कार्य संसार में ऐसा नहीं रह जाता है कि जिसे वह अखण्ड ब्रह्मचारी न कर सके। तात्पर्य वह सब कुछ करने को समर्थ होता है।

इस प्रकार इन दश धर्मों का संक्षिप्त स्वरूप कहा सो तुमको निरन्तर इन धर्मों को अपनी शक्ति अनुसार धारण करना चाहिए। अब इस दशलक्षण व्रत की विधि कहते हैं-

भादों, माघ और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से चतुर्दशी तक १० दिन पर्यंत व्रत किया जाता है। दशों दिन त्रिकाल सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदना, पूजन, अभिषेक, स्तवन, स्वाध्याय तथा धर्मचर्चा आदि कर और क्रम से पंचमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय नम:’’ इस मंत्र का १०८ बार एक-एक समय, इस प्रकार दिन में ३२४ बार तीन काल सामायिक के समय जाप्य करे और इस उत्तम क्षमा गुण की प्राप्ति के लिए भावना भावे तथा उसके स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करे। इसी प्रकार-

षष्ठी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्माङ्गाय नम:’’

सप्तमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआर्जवधर्माङ्गाय नम:’’

अष्टमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्माङ्गाय नम:’’

नवमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्माङ्गाय नम:’’

दशमी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्माङ्गाय नम:’’

एकादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपोधर्माङ्गाय नम:’’

द्वादशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमत्यागधर्माङ्गाय नम:’’

त्रयोदशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमआकिंचन्यधर्माङ्गाय नम:’’

चतुर्दशी को ‘‘ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय नम:’’

इत्यादि मंत्रों का जाप करके भावना भावे।

समस्त दिन स्वाध्याय पूजादि धर्मकार्यों मेें बिताये, रात्रि को जागरण भजन करे, सब प्रकार के राग-द्वेष व क्रोधादि कषाय तथा इन्द्रिय विषयों को बढ़ाने वाली विकथाओं का तथा व्यापारादि समस्त प्रकार के आरंभों का सर्वथा त्याग करे।

दसों दिन यथाशक्ति प्रोषध (उपवास), बेला, तेला आदि करे अथवा ऐसी शक्ति न हो तो एकाशन, ऊनोदर तथा रस त्याग करके करे, परन्तु कामोत्तेजक, सचिक्कण, मिष्ट-गरिष्ठ (भारी) और स्वादिष्ट भोजनों का त्याग करे तथा अपना शरीर स्वच्छ खादी के कपड़ों से ही ढ़के। बढ़िया वस्त्रालंकार न धारण करे और रेशम, ऊन तथा पैâन्सी परदेशी व मिलों के बने वस्त्र तो छुए भी नहीं, क्योंकि वे अनंत जीवों के घात से बनते हैं और कामादिक विकारों को बढ़ाने वाले होते हैं।

इस कारण यह व्रत दश वर्ष तक पालन करने के पश्चात् उत्साह सहित उद्यापन करे अर्थात् छत्र, चमर आदि मंगल द्रव्य, जपमाला, कलश, वस्त्रादि धर्मोपकरण प्रत्येक दश-दश श्रीमंदिर जी में पधराना चाहिए तथा पूजा, विधानादि महोत्सव करना चाहिए, दुखित, भुखितों को भोजनादि दान देना चाहिए।

वाचनालय, विद्यालय, छात्रालय, औषधालय, अनाथालय, पुस्तकालय तथा दीन प्राणीरक्षक संस्थाएं आदि स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार द्रव्य खर्च करने में असमर्थ हो तो शक्ति प्रमाण प्रभावनांग को बढ़ाने वाला उत्सव करे अथवा सर्वथा असमर्थ हो तो द्विगुणित वर्षों प्रमाण (२० वर्ष) व्रत करे। इस व्रत का फल स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

यह उपदेश व व्रत की विधि सुन उन चारों कन्याओं ने मुनिराज की साक्षीपूर्वक इस व्रत को स्वीकार किया और निज घरों को गईं। पश्चात् दश वर्ष तक उन्होंने यथाशक्ति व्रत पालन कर उद्यापन किया सो उत्तमक्षमादि धर्मों का अभ्यास हो जाने से उन चारों कन्याओं का जीवन सुख और शांतिमय हो गया। वे चारों कन्याएं इस प्रकार सर्व स्त्री समाज में मान्य हो गई। पश्चात् वे अपनी आयु पूर्ण कर अंत समय समाधिमरण करके महाशुक्र नामक दशवें स्वर्ग में अमरगिरि, अमरचूल, देवप्रभु और पद्मसारथी नामक महद्र्धिक देव हुए।

वहाँ पर अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की भक्ति-वंदना करते हुए अपनी आयु पूर्ण कर वहाँ से चले, सो जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मालवा प्रांत के उज्जैन नगर में मूलभद्र राजा के घर लक्ष्मीमती नाम की रानी के गर्भ से पूर्णकुमार, देवकुमार, गुणचन्द्र और पद्मकुमार नाम के रूपवान व गुणवान पुत्र हुए और भले प्रकार बाल्यकाल व्यतीत करके कुमारकाल में सब प्रकार की विद्याओं में निपुण हुए। पश्चात् इन चारों का ब्याह नन्दननगर के राजा इण तथा उनकी पत्नी तिलकसुन्दरी के गर्भ से उत्पन्न कलावती, ब्राह्मी, इन्दुगात्री और वंâवूâ नाम की चार अत्यंत रूपवान तथा गुणवान कन्याओं के साथ हुआ और ये दम्पत्ति प्रेमपूर्वक कालक्षेप करने लगे।

एक दिन राजा मूलभद्र ने आकाश में बादलोें को बिखरे देखकर संसार के विनाशीक स्वरूप का चिन्तवन किया और द्वादशानुप्रेक्षा भायी। पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर आप परम दिगम्बर मुनि हो गये। इन चारों पुत्रों ने यथायोग्य प्रजा का पालन व मनुष्योचित भोग भोगकर कोई एक कारण पाकर जिनेश्वरी दीक्षा ली और महान तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त हो, अनेक देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया। फिर शेष अघातिया कर्मों का भी नाशकर आयु के अंत में योग निरोध करके परमपद (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

इस प्रकार उक्त चारों कन्याओं ने विधिपूर्वक इस व्रत को धारण करके स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग तथा मनुष्यगति के सुख भोगकर मोक्षपद प्राप्त किया। इसी प्रकार जो और भव्य जीव मन, वचन, काय से इस व्रत को पालन करेंगे वे भी उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त होंगे